Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
कर्मस्तव परिशिष्ट
:
१६४
और न अन्य को अन्य रूप में परिणमाता है, यानी प्रेरक होकर अन्य द्रव्यों का परिणमन नहीं करता है, किन्तु स्वतः नाना प्रकार के परिणामों को प्राप्त होने वाले पदार्थों के लिए काल कारण होता है । अब प्रश्न होता है कि है; काव्य का अस्तित्व है ? यह कैसे जाना जाये ? तो इसका उत्तर यह है कि समयादिक क्रिया विशेषों की और समयादि द्वारा होने वाले पाक आदिक की समय, पाक इत्यादि रूप से अपनी-अपनी रौहिक संज्ञा के रहते हुए भी उसमें समय, काल, पाककाल इत्यादि रूप से काल संज्ञा का आरोप होता है और इस संज्ञा से निमित्तभूत मुख्य काल के अस्तित्व का ज्ञान हो जाता है ।
यह कालद्रव्य असंख्यात है और मुख्य काल वर्तना रूप है । इस प्रकार मुख्य काल के आधार से ही गौण-व्यवहार काल का घड़ी. मिनट, दिन-रात, पक्ष, मास आदि के रूप में और इनके द्वारा परिवर्तन रूप मुख्य काल का ज्ञान करते हैं, यह मुख्य काल एक-एक अणु के रूप में लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर विद्यमान है। लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं । अत्तः कालाणु भी असंख्यात हैं । व्यवहारकाल के सबसे सूक्ष्मतम अंश का नाम समय है. यानी कालगणना का केन्द्रबिन्दु समय है और उसके बाद निमिष, घड़ी, दिन-रात आदि को हम जानकारी करते हैं । इन समयादि की उत्पत्ति का कारण भी इस मनुष्यलोक में मेरु को नित्य प्रदक्षिणा करने वाले सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिषी देव हैं । इनकी गति से दिन-रात्रि आदि का व्यवहार मनुष्यलोक में होता है ।
कालद्रव्य के सूक्ष्मतम अंश को समय कहते हैं और समय की परिभाषा यह है कि जिस आकाश प्रदेश पर जो कालाणु अवस्थित है जब उस आकाश प्रदेश को पुद्गल परमाणु मन्दगति से उल्लंघन