Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 198
________________ द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट आदि शब्दों का यथास्थान प्रयोग किया जाता है। इन से यह ज्ञात होता है कि काल एक क्षण मान ही नहीं है, लेकिन क्रमबद्ध धाराप्रवाह रूप से परिवर्तनशील है। आधुनिक वैज्ञानिक भी काल को प्रवाहात्मक मानकर इसके अनेक सूक्ष्म अंशों की जानकारी तक पहुंच चुके हैं । लेकिन आगमों में इन सूक्ष्म अंशों के भी अनेक सूक्ष्म अंश होने की विवेचना करके उसकी अनन्तता को सिद्ध किया है। यह विवेचना जिज्ञासुओं को बोधप्रद एवं ज्ञातव्य होने से संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं । विशेष जानकारी के लिए जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि मास्त्र एवं आचार्यों के द्वारा रचित ग्रन्थों को देखना चाहिए। जैनदर्शन में जीवादि छह द्रव्यों के समूह को लोक कहा है। इन छह द्रव्यों में काल भी एक है। अन्य जीवादि द्रव्यों का लक्षण, भेदप्रभेद आदि-आदि के द्वारा जिस प्रकार का मूक्ष्मतम वर्णन किया गया है, उसी प्रकार काल का भी वर्णन किया है। सर्वप्रथम कालद्रव्य की व्याख्या करते हुए बताया है कि जो द्रव्य जीव-अजीब द्रव्यों पर बरतता है, एवं उनकी नवीन, पुरातन आदि अवस्थाओं के बदलने में निमित्त रूप से सहायता करता है, उसे काल कहते हैं। यद्यपि धर्मादि द्रव्य अपनी नदीन पर्याय उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं, तथापि वह पर्याय भी बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं होती है और वह सहकारी कारण कालद्रव्य है। कालद्रव्य का उक्त लक्षण स्वयं काल के शाब्दिक अर्थ से ध्वनित हो जाता है कल्यते, क्षिप्यते, प्रयते येन क्रियावद् द्रव्यं स कालः ।' जिसके द्वारा क्रियावान द्रव्य कल्यते.... ..अर्थात प्रेरणा किये जाते हैं, वह कालद्रव्य है। यह कालद्रव्य न तो स्वयं परिणमित होता है १. राज वा० ४१४२२२:१२

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