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द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट चार विकल्प हुए हैं, उनमें से चौदह प्रकृतियों के क्षय होन से तेरहवें गुणस्थान में उक्त चार विकल्पों के बदले ८०, ८१, ८४ और ८५ ये चार विकल्प वाले सत्तास्थान होते हैं।
यह विशेष समझना चाहिए कि आहारकचतुष्क और तीर्थकरनामकर्म को ससा वालों को ८५ की, तीर्थकरनामकर्म की सत्ता न हो तो ८४ की, आहारकचतुष्क न हो तो ८१ की और तीर्थंकरनामकर्म तथा आहारकचतुष्क कुल पाँच प्रकृतियों की सत्ता न हो तो ८० प्रकृ. तियों की सत्ता होती है। इस प्रकार इस गुणस्थान में ८०, ८१, ८४, और ८५ प्रकृतियों वाले चार सत्ता विकल्प होते हैं।
(१४) अयोगिकेवलीगुणस्थान :- इस गुणस्थान में द्विचरम ममय तक पूक्ति ८०, ८१.८४ और ८५ प्रकृति वाले चार सत्तास्थान होते हैं । इसके बाद ८५ प्रकृतियों के सत्तास्थान वाले के देवगति, देवानुपूर्वी, शुभविहायोगति, अशुभविहायोगति, दो गन्ध, आठ स्पर्श, पाँच वर्ण, पाँच रस, पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पांच संघातन, निर्माण, छह संहनन, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति, छह संस्थान, अगुरुल चतुष्क, अपर्याप्त, साता असाता वेदनीय में से कोई एक, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, औदारिक वैक्रिय और आहारकअंगोपांग, सुस्वर और नीचगोत्र इन ७२ प्रकृतियों के क्षय होने पर १३ प्रकृतियां शेष रहती हैं।
अन्य मतानुसार मनुष्यानुपूर्वी सहित ७३ के क्षय होने पर १२ प्रकृतियाँ शेष रहती हैं।
तीर्थकरनामकर्म की सत्तारहित जीवों के :१२ प्रकृतियों के क्षय होने पर १२ प्रकृतियाँ शेष रहती हैं ।
दूसरे मतानुसार मनुष्यानुपूर्वी सहित ७३ प्रकृतियों का क्षय होने पर ११ प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं।