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द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
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खण्ड हवा में न उड़ सकें और कूप ठसाठस भर जाये। फिर सौ-सौ
के बाद एक-एक खण्ड मित्राला जाये, विकलते-निकलते जब वह कुंआ खाली हो जाये, तब वह एक पल्योपम काल होता है (इसमें असंख्य वर्ष लगते हैं) । तथा दस कोड़ाकोड़ी ( १० करोड़ को एक करोड़ से गुणा करना) पत्योपम का एक सागरोपम होता है । दस कोडाकोड़ सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल और इतने ही काल अर्थात् दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक उत्सर्पिणी काल होता है । दोनों को मिलाकर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक कहलाता है । जो भरत और ऐरावत क्षेत्रों में ही होता है । ऐसे अनन्त कालचक्रों का एक पुद्गल परावर्तन होता है । दूसरे शब्दों में इसे अनन्तकाल कह सकते हैं ।
पल्योपम और सागरोपम के उद्धार, अद्धा और क्षेत्र यह तीन भेद हैं । और यह तीनों भेद भी व्यवहार तथा सूक्ष्म के भेद से दो-दो प्रकार के हो जाने से कुल मिलाकर छह भेद हो जाते हैं द्वीप समुद्रों की अद्धा भेद के द्वारा कर्मस्थिति आदि की भेद से दृष्टिवाद में द्रव्यों की गणना की जाती है ।
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काल के संख्यात, असंख्यात, अनन्त रूप
उद्धार से तथा क्षेत्र
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पुद्गल परावर्तन के रूप में काल अनन्त है, वैसे ही वह संख्यात, असंख्यातात्मक भी है। सामान्यतया जिसकी गिनती की जा सके, जंग संख्यात संख्यातीत को असंख्यात और जिसका अन्त नहीं है उसे अनन्त कहते हैं। इनमें से संख्यात समय सान्त रूप हो होता है । असंख्यात भी सान्त है, लेकिन अनन्त का व्यय होते हुए भी उसका कभी अन्त नहीं आता है। इसीलिए असंख्यात और अनन्त में यह अन्तर हैं कि एक - एक संख्या को घटाते जाने पर जिस राशि का अन्त आ जाये बर्थात् जो राशि समाप्त हो जाती है, वह असंख्यात है । और