________________
द्वितीय कर्मग्रन्थ परिशिष्ट
१५३
सम्यक्त्व प्राप्त होता है वह सम्यक्त्व तियंचों को होता है, परन्तु श्रेणी का सम्यक्त्व नहीं होता है ।
1:
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तिर्यंचों के पूर्ववद्धायुष्क अनेक जीवों की अपेक्षा १४७ की और एक जीव के यदि अन्य गति की आयु बांधी हो तो १३५ की और उस गति की आयु बाँधने वाले तथा अबद्धायुष्क को १४४ प्रकृतियों की सत्ता होती है। यदि आहारकचतुष्क सत्ता में न हो तो १४७, १४५ और १४४ के बदले क्रमशः १४३, १४१ और १४० प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं। मिध्यात्व और मिश्रमोहनीय सत्ता में न हों तो १३८ की सत्ता होती है ।
क्षायिक सम्यक्त्व को पूर्वोक्त १३८ प्रकृतियों में से सम्यक्त्वमोहनीय के बिनाको १३० को १३८ प्रकृतियों की सत्ता होती है। ये आयु बांधने वाले देवायु को ही बाँधते हैं । यदि आहारकचतुष्क की सत्तारहित हों तो १३८ और १३७ के बदले १३४ और १३३ प्रकृतियों की सत्ता होती है !
मनुष्यगति-उपशम सम्यक्त्वी को प्रारम्भ में बतलाई गई सत्ता के अनुसार ही सत्ता होती है, परन्तु वहाँ अबद्धायुहक को जो १४८ प्रकृतियों की सत्ता कही गई, वह चारों गतियों की अपेक्षा कही गई है और मनुष्यगति की अपेक्षा से विचार करने पर १४५ प्रकृतियों को सत्ता होती है । इसी प्रकार क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्वी के भी विशेषता समझना चाहिए । अन्य सत्र में उसी प्रकार सत्ता समझ लेनी चाहिए ।
वैवगति - नरकगति के समान ही इस गति में प्रकृतियों की सत्ता समझना चाहिए | परन्तु विसंयोजक की अपेक्षा १४२, १४१, १४०, १३६ और १३८ - ये पांच सत्तास्थान अधिक होते हैं ।
इस प्रकार चौथे गुणस्थान में १३३,१३४, १३५, १३६, १३७, १३८,