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द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट घाम सम्यक्त्व जिनको होता है वे उपशम सम्यक्स्वी विसंयोजक हो सकते हैं। अन्य जीव उपशम सम्यक्त्व में विसंयोजक नहीं होते हैं। नरकगति के जीवों के तीन करण करने से ही नवीन उपशमसम्यक्त्व होता है, परन्तु श्रेणी वाला नहीं होता है। अतः वे विसंयोजक नहीं होते हैं।
क्षायोपशमिका सम्यक्त्वी अविरत सम्यग्दृष्टि जीव अविसंयोजक और विसंयोजक-दो प्रकार के होते हैं। उपशम सम्यग्दृष्टि को बतलाई गई सत्ता के अनुसार इन जीवों के सत्ता समझना चाहिए । परन्तु यह विशेषता है कि जो जीव सम्यक्त्वमोहनीय की उद्वेलना कर यहाँ आये हों तो ऐसे अनेक जीवों की अपेक्षा देवायु, तियचायु, मनुष्याय, मिथ्यात्वमोहनीय और अनन्तानुवन्धीचतुष्क ये प्रकृतियाँ सत्ता में नहीं होती हैं। क्योंकि उनके आगामी भव की आयु का बन्ध अपनी आयु के छह माह बाकी रहें तब होता है। जब सम्यक्त्वमोहनीय का उद्वेलन करते हुए मरकर आया हुआ जीव अल्प समय में ही क्षायिक सम्यक्त्वी होता है। (यद्यपि क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी सम्यक्त्ववमन करने के बाद ही नरकगति में आता है', ऐसा कहा गया है, परन्तु सम्यक्त्वमोहनीय की उद्वेलना करनेवाला सम्यग्दृष्टि चारों गति में जाता है, ऐसा छठे कर्मग्रन्थ में भी कहा गया है, उससे किसी प्रकार का विसंवाद नहीं समझना चाहिए। किन्तु सम्यक्त्वमोहनीय आदि प्रकृतियों की उद्वेलना करने वाला क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त करने की तैयारी करता है और उसकी अपेक्षा उसे भी क्षायिक सम्यक्त्वी कहा जाता है ।) ___ इसलिए सम्यक्त्वमोहनीय के उद्देलक ऐसे सब नारकी जीवों की अपेक्षा १३६ प्रकृतियों की सत्ता होती है । एक जीव की अपेक्षा आहारकचतुष्क की सत्तारहित तीर्थकरनामकर्म की सत्ता वाले को १३५