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कर्मस्तव परिशिष्ट
अनुक्रम से १३०, १२६, १२६ और १२५ प्रकृतियों की सत्ता होती है । इनमें से (१) स्थावर, (२) सूक्ष्म (३) तियंचगति, (४) तियंचानुपूर्वी, (५) नरकगति, (६) नरकानुपूर्वी (७) आतप (८) उद्योत, (६) निद्रानिद्रा, (१०) प्रचलाप्रचला, (११) स्त्यानद्धि, (१२) एकेन्द्रिय, (१३) डीन्द्रिय, (१४) श्रीन्द्रिय, (१५) तूरिन्द्रिय और (१६) साधारण - इन सोलह प्रकृतियों का संथ होने पर ११४, १४३, ११० और १०६ प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं ।
अनन्तर सामान्यतः नपुंसक वेद का क्षय होने पर पूर्वोक्त सत्तास्थानों के बदले क्रमशः ११३ ११२, १०६ और १०८ प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इनमें से स्त्रीवेद का क्षय होने पर ११२ १११, १०८ और १०७ प्रकृतियों की, इनमें से भी हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर १०६, १०५, १०२ और १०१ प्रकृतियों की और बाद में पुरुषवेद का क्षय होने पर १०५. १०४, १०१ और १०० प्रकृतियों की सत्ता रहती है ।
to श्रेणी प्रस्थापना की अपेक्षा विचार करते हैं। (१) नपुंसकवेदी श्रेणी प्रस्थापक- स्त्रीवेद तथा नपुंसक वेद का और पुरुषवेद तथा हास्यादि पट्क का उसी समय क्षय करे तो नपुंसकवेद का क्षय होने पर ही ११३. १९१२. १०६ और १०८ प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं । हास्यादि षट्क का क्षय होने पर १०६, १०५, १०२ और १०१ प्रकृति वाले सत्ता विकल्प नहीं होते हैं, किन्तु अन्य स्थान पर होने वाले ११३ आदि के विकल्प सम्भव है, परन्तु १०६ प्रकृतियों का सत्तास्थान अन्य किसी प्रसंग घर नपुंसकवेदी क्षपक श्रेणी प्रस्थापक को होता ही नहीं है। इसलिए यह विकल्प तो उसके सर्वथा वर्जित है ।
(२) स्त्रीवेदी श्रेणोप्रस्थापक- पुरुषवेद और हास्यादिषट्क का एक ही समय में क्षय करता है, अतः उस अवसर पर होने वाले १०६,