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द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
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क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करें तो उसी भव में मोक्ष प्राप्त होता है । अतः यहाँ सम्भव सत्ता भी नहीं होती है ।
यदि तीर्थंकर नामक को सत्ता न हो तो ऊपर कहे अनुसार १३६ और १३८ के बदले अनुक्रम में १३= और ५३७ को तथा आहारकचतुष्क सत्ता में न हो तो १३३ और १३८ के बदले १३५ और १३४ की एवं तीर्थंकर नामकर्म और आहारकचतुष्क – ये पाँच प्रकृतियाँ सत्रा में न हों तो १३६ और १३८ के बदले १३४ और १३६ प्रकृतियों की सत्ता होती है ।
(३) क्षायिक सम्यक्त्वी क्षपकश्रेणी वाले जीव अवद्धायुष्क ही होते हैं । अतः दर्शनसप्तक और देव, नियंत्र और नरकायु- इन दस प्रकृतियों के बिना १३८ प्रकृतियों की तथा तीर्थंकर नामकर्म की सत्तारहित जीवों के १३७ की तथा आहारकचतुष्क की सत्तारहित जीवों के १३४ की तथा तीर्थङ्कर नामकर्म और आहारकचतुष्क- इन पाँच प्रकृतियों की सत्ता बिना के जीवों के १३३ प्रकृतियों की मत्ता होती है ।
इस प्रकार आठवं गुणस्थान में १४८, १४७, १४६. १४५.१४४, १४३, १४२, १४१. १४० १३६ १३८. १३७ १३६ १३५ १२४ और १३३ - ये सोलह सत्तास्थान होते हैं ।
(E) अनिवृत्तिबावर संपराय गुणस्थान उपशमश्रेणी के लिए उपमम और क्षायिक सम्यक्त्वी सभी को पहले बतलाये गये १४८. १४७, १४६, १४५. १४४. १४३, १४२, १४९, १४० १३६ १३८. १२७ १३६, १३५, १३४ और १३३ - ये सोलह सत्तास्थान होते हैं ।
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क्षपकश्रेणी करने वाले क्षात्रिक को भी पहले कहे गये अनुसार ही १३६, १३७, १३४ और १३३ र सत्तास्थान होते हैं । परन्तु अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क- इन आठ प्रकृतियों के क्षय होने पर पूर्वोक्त चारों के बजाय