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द्वितीय कर्म ग्रन्थ : परिशिष्ट
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१४४, १४३, १४२, १४१, १४०, १३९, १३८, १३७, १३६, १३५, १३४, और १३३ ये सोलह सत्तास्थान हो सकते हैं और यह गुणस्थान मनुष्य को ही होता है, अत: जिस-जिस स्थान पर अबज्ञायुष्क के आश्रय स अनेक जीवों की अपेक्षा १४८ की सत्ता कही गई हो, वहाँ १४५ प्रकृतियों की सत्ता समझनी चाहिए। अन्य सब सत्तास्थान चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बताई गई प्रकृतियों की सत्ता के अनुसार ही समझना चाहिए।
(७) अप्रमत्त गुणस्थान - इस गुणस्थान में भी छठं प्रमत्तसंयत गुणस्थान के समान १४८, १४७, १४६, १४५, १४४. १४३, १४२, १८१, १४०, १३६, १३८, १३७, १३६, १३५, १३४ और ५३३--ये सोलह सत्तास्थान होते हैं।
(E) अपूर्वकरण गुणस्थान-मनुष्य, तियं च और नरकायु के बन्ध वाले और क्षायोपमिक सम्यग्दृष्टि जीव इस गुणस्थान में नहीं होते हैं । इस गुणस्थान के सामान्यतया तीन प्रकार हैं
(१) उपशम सम्यक्त्वी , उपशमश्रेणी वाले जीव । (२) क्षायिक सम्यक्त्वी उपशमश्रेणी वाले जीव । (३) क्षायिक सम्यक्त्वी, क्षपकश्रेणी वाले जीव ।
इनमें से उपशम सम्यक्त्वी उपशमश्रेणी वाले जीवों की अपेक्षा प्रकृतियों की सत्ता का कथन करते हैं।
ये जीव दो प्रकार के होते हैं- (१ श्रेणी मे पतित होने वाले और (२) श्रेणी को माड़ने वाले । परन्तु इन दोनों की सत्ता में कोई विशषता नहीं है तथा ये दोनों भी अविसंयोजक और विसंयोजक ऐसे दो प्रकार के होते हैं।
अविसंयोजक-अनेक जीवों की अपेक्षा पूर्वबद्धायुष्क के पूर्व में