Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 185
________________ कर्मस्तव परिशिष्ट : १५० नामकर्म की सत्ता होती है, उनके आहारकचतुष्क की सत्ता नहीं होती है और जिनके आहारकचतुष्क की सत्ता होती है, उनको तीर्थकर - नामकर्म की सत्ता नहीं होती है। क्षायिकसम्यक्त्व नवीन प्राप्त नहीं करते हैं तथा मिथ्यात्व और मिश्रमोहनीय की उद्वेलना नहीं करते हैं। यदि पूर्वभव में सम्यक्त्वमोहनीय कर्म की उद्वेलना करते समय मरण हो और पूर्व में नरकायु का बन्ध किया हो तो नरकगति में आकर उद्वेलना की क्रिया पूरी करते हैं। इसलिए सम्यस्त्वमोहनीय के उद्वेलक होते है किन्तु उद्वेलना करने की क्रिया की शुरूआत नहीं करते हैं । इस गति के उपशम सम्यक्स्वी अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वालों में पूर्वायुष्क अनेक जीवों की अपेक्षा देवायु की सत्ता न होने से १४७ की और यदि एक ही प्रकार की आयु का बन्ध किया हो तो ऐसे अनेक जीवों की अपेक्षा १४६ की तथा अद्धायुष्क को १४५ की एवं तीर्थकरनामकर्म की सत्ता वाले ऐसे अनेक जीवों की अपेक्षा देवाय और आहारकचतुष्क के बिना पूर्वबद्धाय बालों के १४३ की. एक जीव की अपेक्षा १४२ की ओर अबद्धायुष्क के १४९ की और आहारकचतुष्क की सत्ता वाले पूर्ववद्वायुष्क अनेक जीवां की अपेक्षा तीर्थंकरनामकर्म और देवायु के सिवाय १४६ की और एक जीव की अपेक्षा १४५ की तथा अवद्धायुष्क को १४४ प्रकृतियों की सत्ता होती है । यदि तीर्थकर नामकर्म और आहारकचतुष्क सत्ता में न हो तो पूर्वायुष्क अनेक जीवों की अपेक्षा तीर्थकर नामकर्म, आहारकचतुष्क और देवायु इन छह प्रकृतियों के सिवाय १४२ को और एक जीव की अपेक्षा २४१ की तथा अबद्धायुष्क के १४० प्रकृतियों की सत्ता होती है । ये जीव विसंयोजक नहीं होते हैं। क्योंकि उपशमश्रेणी का उप

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