Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 183
________________ १४८ कर्मस्तव : परिशिष्ट हो तो १४४, १४२ और १४१ के बदले क्रमशः १४३, १४१ और १४० प्रकृतियों की सत्ता तथा आहारकचतुष्क की सत्ता न हो तो १४४, १४२ और १४१ के बदले क्रमशः अनुक्रम रो १४०, १३८ और १३७ प्रकृतियों की सत्ता समझना चाहिए । यदि तीर्थङ्करनामकर्म और आहारकचतुष्क कुल पांच प्रकृतियों की सत्ता न हो तो १३६, १३७ और १३६ प्रकृतियों की सत्ता समझना चाहिए। अब क्षायोपमिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा कर्मप्रकृतियों की सत्ता का कथन करते हैं। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के दो प्रकार हैं—(१) विसंयोजक, (२) अक्सिंयोजक ा इनोभा औषगांगका सम्मान को बसलाई गई सत्ता के अनुसार प्रकृतियों की सत्ता समझना चाहिए। किन्तु जब अनन्तानुबन्धीचतुष्क की सत्ताविहीन आत्मा मिथ्यात्वमोहनीय की उद्वेलना कर डालती है, तब पूर्वबद्धायुष्टक अनेक जीवों की अपेक्षा १४३ की; एक जीव की अपेक्षा अन्य गति की आयु बांधने वाले को १४१ की और उसी गति की आयु बाँधने वाले को १४० की तथा अबधायुक को भी १४० प्रकृतियों की सत्ता होती है। __ यदि तीर्थ करनामकर्म की सत्ता न हो तो १४३, १४१ और १४० की बजाय अनुक्रम से १४२, १४० और १३ की और आहारकचतुष्क सत्ता में न हो तो १४३. १४१ और १४० के बदले १३६, १३५ और १३६ प्रकृतियों की सत्ता होती है । यदि तीर्थकरनामकर्म और आहारकचतुष्क-कुल ये पांच प्रकृतियाँ मत्ता में न हों तो १४३, १४१ तथा १४० के बदले १३८, १३६ और १३५ प्रकृतियों की सत्ता होती है। ____ यदि उपर्युक्त सभी विकल्प वालों में मिश्रमोहनीय की उद्वेलना की हो तो उनके अनन्तानबन्धीचतुष्क, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय के बिना अनेक जीत्रों को अपेक्षा पूर्वबद्धायुष्क को १४२ की,

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