Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 182
________________ द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट १४७ उक्त सम्यग्दृष्टि के तीन भेदों में से सबसे पहले उपशम सम्यक्त्वी अविरत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा कर्मप्रकृतियों की सत्ता का विचार करते हैं। उपशम सम्यग्दृष्टि जीब के दो भेद हैं—(१) अविसंयोजक, (२) विसंयोजक। अविसंयोजक-- अनेक जीवों की अपेक्षा पूर्वबद्धायुष्क जीवों के १४८ की और एक जीव की अपेक्षा अन्य गति के बद्धायुष्क को १४६ की तथा उसी गति की आयु बाँधने वाले को १४५ की और अबद्धाटक अनेक जीवो की अपेक्षा १४८ लथा एक जीव की अपेक्षा १४५ प्रकृ. तियों की सत्ता होती है। यहां यह विशेष समझना चाहिए कि जिनके तीर्थरनामकर्म सत्ता में न हो तो उनके एक प्रकृति कम ममझना चाहिए। अर्थात् १४८, १४६ और १४५ के बदले क्रमशः १४७, १४५ और १४४ प्रकृतियों का कथन करना चाहिए। यदि आहारकचतुष्क की सत्ता न हो तो १४८, १४६ और १४५ के बदले १४४. १४२ और १४१ प्रकृतियों की सत्ता समझना और तीर्थङ्करनामकर्म और आहारकचतुष्क मत्ता में न हों तो अनुक्रम से १४८, १४६ और १४५ के बदले १४३, १४१ और १४० प्रकृतियों की सत्ता समझना चाहिए । विसंयोजक-अनन्तानुबन्धीचतुष्क सत्ता में न हो किन्तु उसका मूल कारण मिथ्यात्व सत्ता में हो तो भी उसे विसंयोजक कहते हैं। अतः पूर्वबद्धायुष्क अनेक जीवों की अपेक्षा अनन्तानबन्धीचतुष्क के विना शेष १४४ प्रकृतियों की सत्ता होती है। एक जीव की अपेक्षा अन्य गति की आयु बाँधने बाले को १४२ की और उसी गति की आय बाँधने वाले को १४१ की तथा अबद्धायुष्क अनेक जीवों की अपेक्षा १४४ की और एक जीव की अपेक्षा १४१ प्रकृतियों की सत्ता होती है। यहाँ यह विशेष समझना चाहिए कि तीर्थङ्करनामकर्म की सत्ता न

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