________________
द्विसोय कर्मग्रन्थ
;
छठे गुणस्थान से बागे प्रमाद का अभाव है । आहारकद्विकका उदय तो प्रमत्तसंयत को ही होता है। इसलिए इन पाँच प्रकृतियों का उदयविच्छेद छठे गुणस्थान के चरम समय में हो जाता है। जिससे छठे गुणस्थान की उदययोग्य ८१ प्रकृतियों में से इन पांच प्रकृतियों को कम करने से सातवे गुणस्थान में ७६ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं ।
८७
यद्यपि आहारकशरीर बना लेने के बाद भी कोई मुनि विशुद्ध परिणाम से आहारकशरीरवान होने पर भी सातवें गुणस्थान को पर सकते हैं: रेखा कम होता है। बहुत ही अल्पकाल के लिए ऐसा होता है, अतएव सातवें गुणस्थान में आहारकद्विक के उदय को नहीं गिना है । इसीलिए सातवें गुणस्थान में ७६ प्रकृतियों का उदय माना है ।
इस प्रकार पहले से लेकर सातवं गुणस्थान तक की उदययोग्य प्रकृतियों की संख्या और उनके अन्तिम समय में उदयविच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों के नाम बताने के अनन्तर अब आगे की गाथाओं में आठवें - अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें - उपशान्त-कषायवीतराग-द्मस्थ गुणस्थान तक कर्मप्रकृतियों के उदय आदि को समझाते हैं ।
सम्मत्तंतिम संघयपतियगच्छेओ बिसतरि अपुच्वे । हासाइछक्कअंतो छसट्ठि अनियट्टि वेयतिमं ॥ १८ ॥ संजलासिगं छच्छेओ सठि सुहमंमि तुरियलोभंतो । उवसंतगुणे गुणस रिसनारायगअं तो ॥१६॥ गाथार्थ - सम्यक्त्वमोहनीय और अन्त के तीन संहनन का मन्त होने से अपूर्वकरण गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों का उदय तथा इनमें से हास्यादिषट्क का अन्त होने से ६६ प्रकृतियों का उदय अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में होता है । वेद