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द्वितीय कर्मग्रन्थ
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तियों की मत्ता दूसरे भाग के अन्तिम समय में क्षय हो जाने से तीसर भाग में ११४ प्रकृतियों की सत्ता रहती है और उसके बाद तीसरे भाग के अन्तिम समय में नपुंसकवेद का क्षय होने से चौथे भाग में ११३ और इन ११३ प्रकृतियों में से स्त्रीवेव का क्षय चौथे भाग के अन्तिम समय में होने से ११२ प्रकृतियों को मता पाँचवे भाग में होती है तथा पांचवें भाग के अन्त में हास्यपट्क का क्षय होने से छठे भाग में १०६ प्रकृतियों की सत्ता रहती है। छठे भाग में सत्ता योग्य १०६ प्रकृतियों में में उसके अन्तिम समय में पुरुषवेद का अभाव होने से सातवें भाग में १०५ प्रकृतियाँ और सातवें भाग में जो १०५ कृतियाँ मनायोग्य बतलाई हैं, उनमें से संज्वलन क्रोध का सातवें भाग के अन्तिम समय में क्षय हो जाता है । अतः आठवें भाग में १०४ प्रकृतियों की सत्ता तथा आठवें भाग की सत्तायोग्य १०४ प्रकृतियों में से आठवें भाग के अन्तिम समय में संज्वलन मान को क्षय हो जाने से नौ भाग में १०३ प्रकृतियों की सत्ता रहती है ।
इस प्रकार नीव गुणस्थान के अन्तिम भाग - नौवें भाग में १०३ प्रकृतियों की सत्ता रहती है और इस अन्तिम भाग- नौवें भाग के अन्तिम समय में संज्वलन माया का भी क्षय हो जाता है । माया के क्षय होने से शेष रही हुई १०२ प्रकृतियाँ दसवें गुणस्थान में मत्तायोग्य रहती हैं। इसका कथन आगे की गाथा में किया जाएगा।
यह एक साधारण नियम है कि कारण के अभाव में कार्य का भी सद्भाव नहीं रहता है। अतः पहले के गुणस्थानों में जिन कर्मप्रकृतियों का क्षय हुआ, उनके बन्ध, उदय और सत्ता के प्रायः प्रमुख कारण मिथ्यार, अविरति और कषाय हैं। पूर्व-पूर्व के गुणस्थान की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के गुणस्थानों में मिथ्यात्व आदि कारणों का अभाव होता जाता है | अतः अब ये मिध्यात्वादि कारण नहीं रहे तो उनके सद्भाव