Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
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गुणस्थान प्राप्त करने की योग्यता रखनेवाले होते हैं और कितनेक उस प्रकार की योग्यताविहीन होते हैं। उनको शास्त्रों में क्रमशः भव्य और अभव्य कहा है । इनके भी दो भेद हैं- उनमें कितनेक जीवों ने बसपर्याय प्राप्त ही नहीं की है और कितनेक जीव श्रपर्याय प्राप्त किये हुए होते हैं। उनमें भी कितने ही जीव उसी भाव में आगामी भव की आयु का बन्ध किये हुए और बन्ध नहीं किये हुए- ये दो भेद वाले होते हैं। उन्हें पूर्वायुष्क और अबद्धायुगक कहते हैं । सारांश यह है कि इनके निम्नलिखित भेद होते हैं-
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(१) अनादिमिध्यात्वी सपर्याय अप्राप्त पूर्वबद्धायुक (२) अनादिमिथ्यात्वी सपर्याय अप्राप्त अवद्वायुष्क । (३) अनादिमिथ्यात्वी सपर्याय प्राप्त पुर्वबद्धायुष्क 1
(४) अनादिमिथ्यात्वी नमपर्याय प्राप्त - अब ग्रायुष्क । इन चारों के भव्य और अभव्य की अपेक्षा से कुल आठ भेद हैं ।
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उक्त भेदों के द्वारा मिथ्याल गुणस्थान में प्रकृतियों की सत्ता समझने में सुविधा होगी। परन्तु प्रकृतियों की सत्ता समझने के पूर्व इतना समझ लेना चाहिए कि कभी भी त्रस पर्याय प्राप्त नहीं करने वालों की मनुष्यद्विक, नरकद्विक, देवद्विक, वैश्रियचतुरक आहारकचतुष्क, नरकाय. मनुष्यायु, देवाय, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, गोत्र और तीर्थङ्कर नामकर्म- इन इक्कीस प्रकृतियों की कभी भी सत्ता नहीं होती है तथा जो अनादिमिथ्यात्वी है, उन्हें सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीय आहारकचतुष्क और तीर्थङ्कर नामकर्म इस सात प्रकृतियों की सत्ता होती ही नहीं है। एक जीव को अधिक से अधिक दो आयुकर्म की सत्ता होती है !
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अब उक्त आठ भेदों में सत्ता विषयक विचार करते हैं
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