Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव परिशिष्ट
द्विक या देवद्विक की उद्वेलना करे तो अनेक जीवों की अपेक्षा १४२ की और दोनों द्विकों में से एक ट्रिक की उद्वेलना की हो तो अनेक जीवों की अपेक्षा १४० की तथा उसी गति का बन्ध करने वाले को १३७ की और अन्य गति को बांधने वाले के १३८ प्रकृतियों की सत्ता होती है। जिस प्रकार अनेक जीवों को अपेक्षा अनुक्रम से १३८ और १३६ प्रकृतियों की सत्ता कही गयी है, उसी प्रकार मिश्रमोहनीय की उद्वेलना करने वाले को (जहाँ १४२, १४० १३८ और १३७ की सत्ता होती है, ऐसा कहा है, वहाँ १४१, १३६, १३७ और १३६ की सत्ता समझनी चाहिए ।
देवगति - इस गति में अनेक जीवों की अपेक्षा विचार करें तो तीर्थकर नामकर्म और नरकायु- इन दो के सिवाय इस गुणस्थान में १४६ की और एक जीव की अपेक्षा १४५ की और अबद्धायुष्क को १४४ की तथा आहारना चतुष्क की सत्ता से रहित बद्धायुष्क अनेक जीवों की अपेक्षा १४२ और एक जीव की अपेक्षा १४१ की एवं अबद्धायुष्क को १४० प्रकृतियों की सत्ता होती है ।
इस प्रकार पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में अनादिमिथ्यादृष्टि और सादि मिध्यादृष्टि की अपेक्षा १२७ १२६ १३० १३१, १३६, १३७, १३. १३६, १४० १४२.१४२, १०३. १४४, १४५, १४६, १४७ और १४८ इन सह सत्तास्थानों का विचार किया गया। अब दूसरे सासादन गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों की सत्ता का वर्णन करते हैं।
(२) सासादन गुणस्थान - इस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों की सत्ता के बारे में यह विशेष रूप से समझना चाहिए कि
(१) इस गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म की सत्ता नहीं होती है । (२) जिनके देवद्विक, नरर्काद्विक और वैकियचतुष्क सत्ता में हों वे ही इस गुणस्थान में आते हैं तथा आहारकचतुष्क की सत्ता वाले भी आते हैं।