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द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
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चाहिए। परन्तु जो नरकद्रिक अथवा देवद्रिक की उद्वेलना करने मैं, उनके सम्यक्त्वमोहनीय आदि सात तथा उनके अबद्धायु वाले होन मे शेष तीन आयु, कुल बारह प्रकृतियों के सिवाय एक जीव की अपेक्षा १३६ की, अनेक जीवों की अपेक्षा १३५ की तथा वैयिषट्क और पूर्वोक्त द्विक की उद्वेलना की हो तो १३० प्रकृतियों की भी सना अन्प काल के लिए हो सकती है।
देवगति - इस गति वाले जीव नरकगति में नहीं जाते हैं । अतः तद्योग्य आयु का बन्ध करते ही नहीं हैं और अनादिमिथ्यात्वी होतो सम्यक्त्वमोहनीय आदि सात कुल आठ प्रकृतियों के सिवाय पूर्वबद्धायुष्क को अनेक जीवों की अपेक्षा १४० की और एक जीव की अपेक्षा १३६ की और अबद्धायुष्क को १३८ प्रकृतियों को सत्ता होती है ।
अब सादिमिथ्यात्व की अपेक्षा चारों गतियों में कर्मप्रकृतियों की सत्ता बतलाते हैं ।
नरकगति - इस गति में अनेक जीवों की अपेक्षा पूर्वबद्ध आयु वाले के देवायु का बन्ध न होने से १४७ को तथा एक प्रकार की आयु बाँधने वाले अनेक जीवों की अपेक्षा १४६ की तथा अबद्ध आयु वाले के अनेकः जीवों की अपेक्षा ४५ प्रकृतियों की सत्ता होती है ।
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यदि तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता वाला पहले गुणस्थान में नरकगति में अबद्धायुष्क ही हो तो उसे आहारकचतुष्क, देव, मनुष्य, और तिर्यच आयु- ये सात प्रकृतियां सत्ता में नहीं होने से १४१ की और आहारकचतुष्क की सत्ता वाले पूर्वबद्धायुष्क के अनेक जीवों की अपेक्षा १४६ की, एक जीव की अपेक्षा १४५ की और अबद्धामुरुक के १४४ प्रकृतियों की सत्ता होती है।
तीर्थंकर नामकर्म और आहारकचतुष्क की सत्ता में रहित वायुष्क अनेक जीवों की अपेक्षा १४२ की, एक जीव की अपेक्षा १४१ की और अator के १४० प्रकृतियों को सत्ता होती है। उनमें भी