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कमंस्तव
पहले मिथ्यात्व गणस्थान से लेकर बारहवं-क्षीणमोह गुणस्थान पर्यन्त सर्वप्रथम मोहनीयकर्म की अविनाभावी कर्मप्रकृतियों के उदय और सत्ता का विच्छेद बतलाकर अन्तिम समय में चार दर्शनावरण, पाँच ज्ञानावरण और पांच अन्तराय की सत्ता का विच्छेद होना बताया है। इसी प्रकार बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में उदयविच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों में भी उक्त १४ प्रकृतियाँ हैं ।
इस प्रकार बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में सत्तायोग्य ६६ प्रकृतियों में से दर्शनावरण आदि की १४ प्रकृतियों के क्षय हो जाने में तेरहवां गणस्थान प्राप्त होता है।
अब आगे की गाथाओं में तेरहवें, चौदहवं गणस्थान की सना प्रकृतियों की संख्या और क्षय होने वाली प्रकृतियों के नाम बतलाते हैं ।
पणसोइ सजोगि अजोगि दुरिमे देवखगइगंधयुगं । फासट्ठ उन्नरसतणुबंधणसंघायण निमिणं ॥३१॥ संध्यणअघिरसंगण-छक्क अगुरुलहुचाउ अपज्जतं । सायं व असायं वा परित्तुसंगतिग सुसर नियं ॥३२॥ बिसयरिखओ य चरिमे तेरस मणुयतसतिग-जसाइज्ज।
सुभगजिणुनच पणिदिय तेरस सायासाएगयरछेओ ॥३३॥ गाथार्थ-सयोगि और अयोगि गुणस्थान के द्विचरम समय तक ८५ प्रकृतियों की सत्ता रहती है। उसके बाद देवद्विक, विहायोगतिद्विक, गन्धद्विक, आठ स्पर्श, वर्ण, रस, शरीर, बन्धन और संघातन की पांच-पाँच, निर्माणनाम, संहननषट्क, अस्थिरषट्क, संस्थानषट्क, अगुरुलबुनतुष्क, अपर्याप्तनाम, साता अथवा असातावेदनीय, प्रत्येक व उपांग की तीनतीन, सुस्वर और नीचगोत्र इन ७२ प्रकृतियों का क्षय चौद -