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द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
(६) अनन्तानुबन्धी कषाय सहकृत संक्लेशनिमित्तक – तिर्यंचगति, तिचानुपूर्वी, तिर्यचायु, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्ध, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, ऋषभनाराचसंहनन नावमनन करा कीलिवन न्यग्रोधसंस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान कुब्जसंस्थान, नौचगोत्र, उद्योत, अशुभविहायोगति, स्त्रीवेद ।
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(१०) मिथ्यात्व - सहकृत संक्लेशनिमित्तक - नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, एकेन्द्रियजाति, दीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति चतुरिन्द्रियजाति, इंडकसंस्थान, आतप, सेवासंसंहनन, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व ।
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(११) सम्यक्त्य - सहकृत संक्लेशनिमित्तक - तीर्थकर नामकर्म । १ प्रत्येक गुणस्थान में बन्धयोग्य कौन-कौन सी प्रकृतियाँ होती है और कौन सी नहीं, इसका कारण तथा बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से प्रत्येक प्रकृति का किस गुणस्थान तक बन्ध होता है, आदि की तालिका बनाने से गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध की विशेष जानकारी प्राप्त की जा सकती है ।
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उवय - उदीरणा
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त मे स्थिति को पूर्ण करके कर्म का फल मिलना उदय कहलाता है। अबत् जिस समय कोई कर्म बंधता है, उस समय से ही उसको सत्ता की शुरूआत हो जाती है और जिस कर्म का जितना अबाधाकाल है, उसके समाप्त होते ही उस कर्म के उदय में आने के लिए कर्म-दलिकों की निषेक नामक एक विशेष प्रकार की रचना होती है और निषेक के अग्रभाग में स्थित कर्म उदयावलिका में स्थित होकर फल देना प्रारम्भ कर देते हैं ।
उदय में आने के समय के पूर्ण न होने पर भी आत्मा के करण