Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्म बन्ध, उदय और सत्ता विषयक स्पष्टीकरण
बन्ध
नवीन कर्मो के ग्रहण को बन्ध कहते हैं । जोव के स्वभावतः अमूर्त होने पर भी संसारस्थ जीव शरीरधारी होने मे कथंचित मूर्त है, उस अवस्था में कषाय और योग के निमित्त मे अनादिकाल से मूर्त कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता आ रहा है। पुद्गल वर्गणाएँ अनेक प्रकार की हैं, उनमें से जो वर्गणाएं कर्मरूप में परिणत होने की योग्यता रखती हैं, जोव उन्हीं को ग्रहण करके निज आत्मप्रदेशों के साथ संयोग सम्बन्ध के द्वारा विशिष्ट रूप से जोड़ लेता है। इनमें से कषाय के उदय के निमित्त से होने वाले कर्मबन्ध को सांपरायिक बन्ध और शेष को योगनिमित्तक ( योगप्रत्ययिक) बन्ध कहते हैं । यहाँ कषाय शब्द से सामान्यतया मोहनीयकमें को ग्रहण किया गया है ।
बन्ध के कारणों में योग और कषाय (मोहनीय कर्म) मुख्य है। उनके कारण जिस गुणस्थान में जिस प्रकार के निमित्त होते है, वैम कर्म बँधते हैं; जैसे - वेदनीयकर्म में से सातावेदनीय कर्मप्रकृति योग के निमित्त से बंधती है और असातावेदनीय कर्मप्रकृति के बन्ध में कषाय के सहकार की आवश्यकता होती है ।
मोहनीय कर्म (कषाय) के निमित्त से होने वाले बन्ध के भी प्रमादसहकृत और अप्रमादसहकृत- ये दो भेद होते है । मोहनीयकर्म के सूक्ष्मसंपराय, बादरसंपराय तथा बादरसंपराय में भी निवृत्ति, अनिवृत्ति, यथाप्रवृत्ति, अपूर्वकरण, प्रत्याख्यानीय, अप्रत्याख्यानीय, अनन्तानुबन्धनीय, मिथ्यात्व आदि निमित्त बनते हैं तथा सम्यक्त्वसहकृत संक्लेग परिणाम भी बन्ध में निमित्तरूप होता है ।