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द्वितीय कर्मग्रन्थ
में भी सत्ता में रहते हैं तथा जिनका उदय पहले से ही न हो, उनकी सत्ता द्विचरम समय में ही नष्ट हो जाती है। चारों आनुपूर्वी कर्म क्षेत्रविपाकी हैं, अतः उनका उदय भट (मरण होने से इस जन के पारीः को छोड़कर दूसरे जन्म का शरीर धारण करने) की अन्तरालगति म
बद्ध कमों का अबाधाकाल समाप्त होने पर उदय में जो कम आते हैं, वह उदय दो प्रकार का है
(१) रसोदय, (२) प्रदेशोदय ।
बँधे हुए कर्मों का साक्षात् अनुभव करना सोदय है । बंधे हुए कर्मों का अन्य रूप (अति दलिक तो जिन कर्मों के बांधे हुए हैं, उनका रस दूसरे भोगे जाने वाले सजातीय प्रकृतियों के निषेक के साथ भोगा जाए, पानी जिसका रस स्वयं का विपाक न बता सक) से अनुमक, वह प्रदेशोदय कहलाता है। अन्य प्रकृति के साथ जदय होने का कारण यह है कि रसोदय होने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भय - काँच कारण हैं। उनमें से किसी एक या अधिक हेतुओं के अभाव में उस कर्म का रसोदय नहीं होता । उदाहरणतः किसी जीव ने मनुष्यगति में रहते हए एकेन्द्रियजाति नामकर्म का बन्ध्र किया, अनन्तर विशुद्ध परिणामों से देवगतिप्रायोग्य बन्ध करके पंचेन्द्रियजाति का बन्ध किया व पंचेन्द्रियरूप मे देवर्गात में उत्पन्न हो गया। एकेन्द्रियजाति का अबाधाकान व्यतीत हुआ, परन्तु उस एकेन्द्रियजाति के रमोदय हेतु भवरूप कारण चाहिए, जिसका देवगति में अभाव है, अत: वह कर्म सोदय का अनुभव न कराके प्रदेशोदय को प्राप्त करता है । उदयोन्मुख कर्म निषेक को रसोदय का मार्ग न मिलने से उसके निषेक के दलिक अन्य मार्ग-प्रदेशोदय को ग्रहण करते हैं । इस प्रवेशोदय के होने में उन कमों का सहज परिणमन 'स्तिबुकसंक्रमण' को ग्रहण करता है। अर्थात् अनुदयवती प्रकृतियों के सजातीय उदयमती प्रकतियों में संक्रान्त होने को स्तिबुफसंक्रमण कहते हैं-अपर माम प्रदेशोदय भी कह सकते है।