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कर्मस्तव - प्रकृतियों की संख्या और उन-उनके अन्तिम समय में क्षय होने वाली प्रकृतियों का कथन किया जा चुका है । अब आगे को गाथा में चौदहर गुणस्थान के अन्तिम समय में सत्तायोग्य १३ प्रकृतियों के स्थान में १२ प्रकृतियों के क्षय होने का अभिमत स्पष्ट करते हुए ग्रन्थ का उपसंहार करते हैं। .
नरअणुपुध्धि विणा वा बारस चरिमसमयंमि जो खविउं । पत्तो सिद्धि विववंदियं नमह तं बोरं ॥३४।। गाथार्थ-अथवा पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियों मे से मनुष्यापूर्वी को छोड़कर शेष बारह प्रकृतियों को चौदहवं गुणस्थान के अन्तिम समय में क्षयकर जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है तथा देवेन्द्रों से अथवा देमेन्ट परि से नन्दित से महान महावीर को नमस्कार करो।
विशेषार्थ पूर्व गाथा में चौदह-अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय में तेरह प्रकृतियों की सत्ता का क्षय होना बतलाया है। लेकिन इस गाथा में बारह प्रकृतियों की सत्ता के क्षय होने के मत का संकेत करते हुए ग्रन्थ का उपसंहार किया गया है ।
किन्हीं-किन्हीं आचार्यों का मत है कि मनुष्यानुपूर्वी नामकर्म की सत्ता चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में ही मनुष्यत्रिक में गभिन मनुष्यगतिनामकर्म प्रकृति में स्तिबु कसंक्रम द्वारा संक्रान्त होकर नष्ट हो जाती है । अत: चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में उसके दलिक नहीं रहते हैं और शेष बारह प्रकृतियों का स्वजाति के बिना स्तिबुकसक्रम नहीं होने से उनके दलिक चौदहा गुणस्थान के अन्तिम समय १. अनुदपवती कर्मप्रकृति के दलिकों को सजातीय और तुरूप स्थिति वाली
उदयवत्री कर्मप्रकृति के रूप में बदलकर अमके दलिकों के माय भोग लेना स्तिबुकसक्रम कहलाता है ।