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मितीय कर्मग्रन्थ
११९ चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में उपर्युक्त ७२ प्रकृतियों का क्षय हो जाने से अन्तिम समय में निम्नलिखित १३ प्रकृतियों की सत्ता रहती है-मनुष्यत्रिक-मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु, असत्रिक-प्रस, वादर, पर्याप्त नाम, यश कीर्ति, आदेयनाम, सुभग, तीर्थंकर, उच्चगोत्र, पचेन्द्रियजाति एवं साता या असाता वेदनीय में से कोई एक । शेष रही ये १३ प्रकृतियाँ भी ऐसी हैं कि जिनकी अयोगिकेवली भगवान् समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति शुक्लध्यान में ध्यानस्थ होकर पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण करने जितने समय में क्षय करने से सर्वथा कर्ममुक्त हो ज्ञानाबरणादि अष्टकर्मों से रहित अनन्त सुख का अनुभव करने से शान्तिमय, नवीन कर्मबन्ध के कारणभूत भावकर्मरूपी मैल से रहित, नित्य, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अव्याबाध, अवगाहन, अमूर्तत्व और अगुरुलघु-इन आठ गुणों सहित और कुतकृत्य, लोक के अग्रभाग में स्थित होकर सिक कहलान लगते हैं।
इस प्रकार गुणस्थानों में कम से कर्मबन्ध, उदय और सत्तायोग्य
क्षेत्रविपाकी-(जिस कर्म के उदय से जीव नियत स्थान को प्राप्त करे उसे क्षेत्रविपाकीकर्म कहते हैं।) देवानुपूर्वी। जोवधिमाकी-(जिस कर्म का फल जीवों में हो, उमे जीवविपाकीकर्म कहते हैं ।) देवगति, शुभ विहायोगति नाम, अशुभ विहायोगति नाम, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, अयश कीति, उच्छवास, अपर्याप्त, सुस्वर, नीचगोत्र, साता या असाता वेदनीय कमं में से कोई एक । पुद्गलविपाको--(जिसका फल पुगल-शरीर में हो, उसे पुद्गलविपाकी कहते हैं ।) मंद्धिक, स्पसं-अष्टक, रसपंचक, वर्णपंचक, शरीरपंचक, बन्धनपंचक, संघातनपंचक, निर्माणनाम, संहननषट्क, अस्थिर, अनुभ, संस्थानषट्क, अगुरुलधु, उपघात, पराधात, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, अंगोपांत्रिक।