________________
द्वितीय कर्मग्रन्थ
११५
समझना चाहिए। इन १०१ प्रकृतियों में से निद्राद्विक – निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का क्षय हो जाने से अन्तिम समय में ६६ प्रकृ तियों की सता रहती है ।
बारहवें गुणस्थान में मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है । अतः सत्तायोग्य प्रकृतियों में मोहनीयकर्म की प्रबलता से बंधने वाली, उदय होने वाली और सत्ता में रहने वाली कर्मप्रकृतियाँ नहीं रहती हैं। मोहनीयकर्म के कारण ही ज्ञानावरण, अन्तराय की पाँच-पाँच तथा दर्शनावरण की चक्षुदर्शनावरण आदि चार प्रकृतियाँ कुल १४ प्रकृतियों के बन्ध, उदय और मत्ता की संभावना रहती है लेकिन मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का क्षय होने से उक्त १४ प्रकृतियों का भी बन्ध, उदय, सत्ता रूप में अस्तित्व नहीं रह सकता है। इसलिए बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में दर्शनावरणचतुष्क-चक्षु, अचक्षु, अवधि केवलदर्शनावरण, ज्ञानावरणपंचक-मति श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानावरण तथा अन्तरायपंचक -- दान, लाभ, भोम, उपभोग और वीर्य - अन्तराय, कुल १४ प्रकृतियों का क्षय हो जाता है ।
,
—
प्रतिबन्धक कारणों-- कर्मों के नाश हो जाने में सहज चेतना के निरावरण होने पर आत्मा का स्व-स्वरूप केवल उपयोग का आवि र्भाव होता है । केवल उपयोग का मतलब है सामान्य और विशेष - दोनों प्रकार का सम्पूर्ण बोध । इस केवल उपयोग के प्रतिबन्धक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय- ये चार कर्म हैं । इनमें मोहनीयकर्म मुख्य है। मोहनीयकर्म के क्षय हो जाने के बाद ही बाकी के दर्शनावरण, ज्ञानावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का क्षय होता है । इनके नष्ट होने पर कैवल्य की प्राप्ति होती है। अतः
१. समान्य उपयोग केवलदर्शन, विशेष उपयोग केवलज्ञान । २. मोक्षाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरागक्षयाच्च केवलम् । तस्वार्थसूत्र १०।१
—