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द्वितीय कर्मग्रन्थ
और यह सत्ता नौवें गुणस्थान के प्रथम भाग तक पाई जाती है। लेकिन जो जीव वर्तमान जन्म में क्षपकश्रेणी नहीं कर सकते, यानी अचरमशरीरी हैं, उनमें से कुछ क्षायिक सम्यक्त्वी भी होते हैं और कुछ औपशमिक सम्यक्त्वी तथा कुछ क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी भी होते हैं। इनमें से क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्वो अचरमशरीरी जीवों को की अपेक्षा १४८ प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है ।
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इन १४८ प्रकृतियों में से जो जीव उपशमश्रेणी को प्रारम्भ करने वाले हैं और उपशमश्रेणी प्रारम्भ करने के लिए यह सिद्धान्त है कि जो अनन्तानुबन्धी पाय चतुष्क का विसंयोजन करता है तथा नरक व तिर्यच आयु का जिसे बन्ध न हो वह उपशमश्रेणी प्रारम्भ कर सकता है, तो हम सिद्धान्त के अनुसार आठवें से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क तथा नरकायु और तिर्यंचायु - इन छह प्रकृतियों के सित्राय १४२ प्रकृतियों की मत्ता होती है।
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इस प्रकार मोक्ष की कारणभूत क्षपकश्रेणी वाले जीवों के नौवे गुणस्थान के प्रथम भाग पर्यंत कर्मों की सत्ता बतलाई जा चुकी है । नौवें गुणस्थान के नौ भाग होते हैं । अतः आगे की दो गाथाओं में नौवें गुणस्थान के दूसरे से नौवें भाग पर्यंत आठ भागों में प्रकृतियों की सत्ता को बतलाने हैं ।
थावरतिरिनिरयायव-युग धोणतिगेग विगल साहारं ।
सोलखओ दुबीसस्यं श्रियंसि बियतियकसायंतो ॥२८॥ ॥ तइयाइसु चउदसतेरबारछपणच उतिहिय सय कमसो । नपुर स्थिहासछपु सतुरियको हमयमाययओ गाथार्थं - स्थावरद्विक, तिर्यचद्विक, नरकद्विक, आतपत्रिक,
॥२६॥