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द्वितीय कर्मग्रन्थ
हैं । पच्चीसवीं गाथा में जो १४८ प्रकृतियों की सत्ता कही गई है, सो क्षायोपथमिक सम्यक्त्वी तथा औपशमिक सम्यवत्बी अचरमशरीरी. की अपेक्षा से समझना चाहिए तथा छब्बीसवीं गाया में जो १४१ प्रकृतियों की सत्ता कही है, वह क्षायिक सम्यक्त्वी अचरमशरोरी की अपेक्षा से समझना चाहिए । क्योंकि किसी भी अचरमशरीरी जीव को यद्यपि एक साथ सब आयुओं की सत्ता नहीं होता है, लेकिन उनकी सत्ता होना सम्भव रहता है, इमलिए उसको सब आयुओं की सत्ता मानी जाती है।
सारांश यह है कि सामान्य से १४८ प्रकृतियाँ सत्तायोग्य हैं और दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तीर्थक्षरनामकर्म की सत्ता न होने में १४७ प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है, लेकिन पहले और चौथे में लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक जो १४८ प्रकृतियों की सत्ता कही है, वह सम्भव-सत्ता की ला से मानी ना है। कि जशनदेनी मांड़ने वाले के ग्यारहवे गुणस्थान में गिरने की सम्भावना रहती है और जिस क्रम से गुणस्थान का आरोहण किया था, उसी क्रम से गिरते समय उन-उन गुणस्थानों को स्पर्श करते हुए पहले मिथ्यात्व गुणस्थान को भी प्राप्त कर सकता है। इसीलिए वर्तमान में चाहे गुणस्थान के अनुसार कर्म-प्रकृतियों की सत्ता हो, लेकिन शेष प्रकृतियों की सत्ता होने की सम्भावना से १४८ प्रकृतियों को सत्ता मानी जाती है ।
लेकिन चौथे गुणस्थान का नाम अविरत सम्यग्दृष्टि है। वे सम्यग्दृष्टि तीन प्रकार के होते हैं- उपशम सम्यग्दृष्टि, शायोपमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि । जो सम्यक्त्व की बाधक मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम करके सम्यकदृष्टि वाले हैं, उन्हें उपशमसम्यगृदृष्टि तथा मोहनीयकर्म की प्रकृतियों में से क्षययोग्य प्रकृतियों का क्षय और शेष रही हुई प्रकृतियों का उपशम करने से जो सम्यक्त्व