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द्वितीय कर्मप्रन्य
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सारांश यह है कि श्रेणी नहीं मांडन वाले क्षायिक सन्यास्त्री जीवों के चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में सामान्य से १४१ प्रकृतियों की सत्ता होती है, यह कथन अनेक जीवों की अपेक्षा से है तथा क्षाधिक सम्यक्त्वी होने पर भी जो चरमशरीरी नहीं है, ऐगे अनेक जीवों की अपेक्षा से भी १४१ प्रकृतियों की सत्ता उक्त चौथे से सातवें गुणस्थान पर्यन्त चार मुणस्थानों में मानी गई है।
उपशमश्रेणी आठवें से लेकर ग्यारहवें गणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों तक मानी जाती है । अर्थात् यह चार गुणस्थान उपशमश्रेणी के होते हैं और उपशमश्रेणी अनन्तानुबन्धोकषायचतुष्क का विसंयोजन करने से तथा नरक और तिर्यच आय को नहीं बांधने वाले यानी सिर्फ देवायु का बन्ध्र करने वाले को होती है । अतः सामान्य से सत्तायोग्य १४८ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धीकपायचतुष्क और नरक व तिर्यचायु कुल छह प्रकृतियों को कम करने पर १४२ प्रकृतियों की सत्ता उपशमधेणी मांड़ने वाले जीवों को आठवें भ लेकर ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त चार गणस्थानों में मानी जाती है।
इस प्रकार चौथे से लेकर उपशमश्रेणी के गुणस्थानों पर्यन्त सामान्य से सत्ता प्रकृतियों का वर्णन करके अब क्षपकश्रेणी की अपेक्षा कर्मों की सत्ता का कथन आगे की गाथा में करते हैं ।
लक्षणं तु पप्प चउसु दि पमयाल नरयतिरिसुराज विणा । सत्तग विशु अडतीसं जा अनियट्टी पडमभागो ॥२७॥ गाथार्थ-क्षपक जीवों की अपेक्षा से चार गुणस्थानों में नरक, तिर्यंच और देवायु-इन तीन प्रकृतियों के सिवाय १४५ प्रकृतियों की तथा सप्तक के बिना १३८ प्रकृतियों की सत्ता अनिवृत्ति गुणस्थान के पहले समय तक होती है ।