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कर्मस्तव
विशेषार्थ-यद्यपि पहले की गाथा में दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर पहले से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक सामान्य मे १४८ प्रकृसियों को सत्ता बतलाई है और दूसरे तथा तीसरे गुणस्थान में १४७ प्रकृतियों की सत्ता कही गई है। सामान्य की अपेक्षा यह कथन ठीक भी है। लेकिन चौथे से लेकर आगे के गुणस्थानों में वर्तमान जीवों के अध्यवसाय विशुद्धतर होने से कर्मप्रकृतियों की सत्ता कम होती जाती है। इसी बात को ध्यान में रखकर चौथे आदि से लेकर आगे के गुणस्थानों में सत्ता को समझाते है।
पंचसंग्रह का सिद्धान्त है कि अनन्तानुबन्धीकषाय चतुष्क का विसंयोजन करने पर तथा नरक व तिथंच आयु का बन्ध न करने वाला जीव उपशमश्रेणी का प्रारम्भ करता है, यानी जो जीव अनन्तानुबन्धीकषायचतुष्क की विसंयोजना कर और देवायु को बाँधकर उपशमश्रेणी को करता है, ऐसे जीव को आठवें आदि चार गुणस्थानों में १४२ प्रकृतियों की सत्ता होती है ।
अनन्तानुबन्धीकषायचतुष्क और दर्शनमोहनीयत्रिक-इन सात प्रकृतियों का जिन्होंने क्षय किया है, उनकी अपेक्षा चौधे से लेकर सातवें गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों में १४१ प्रकृतियों की सत्ता होती है। __ यह १४१ प्रकृतियों की सत्ता बिना श्रेणी वाले क्षायिक सम्यक्त्वी को समझना चाहिए तथा शायिक सम्यक्त्वी होने पर भी जो चरमशरीरी नहीं है, किन्तु जिनको मोक्ष के लिए जन्मान्तर लेना बाकी है, उन जीवों की अपेक्षा मे १४१ कर्मप्रकृतियों की सत्ता का पक्ष समझना चाहिए । लेकिन जो चरमशरीरी क्षायिक सम्यक्त्वी हैं, उनको मनुष्य आयु के अतिरिक्त दूसरी आयु की न तो स्वरूप-सत्ता है और न सम्भवसत्ता ही है।