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द्वितीय कर्मग्रन्थ
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इसीलिए दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म को छोड़कर १४७ प्रकृतियों की सत्ता हो सकती है ।
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शंका- नरक और तिर्यंचायु का बन्ध करने वाला उपशमश्रेणी करता नहीं है तथा बन्ध और उदय के बिना आयुकर्म की सत्ता होती नहीं तथा छठे कर्मग्रन्थ में भी आयुकर्म के भांगे किये हैं, वहाँ १०. ११, गुणस्थानों में नरक और तिर्यंचायु की सत्ता नहीं बताई है तो फिर ग्यारहवें गुणस्थान तक १४८ प्रकृतियों की सत्ता कैसे मानी जाती है ?
समाधान - यद्यपि श्रेणी में नरक और तिर्यंचायु की सत्ता घटती तो नहीं है। फिर भी कोई जीव उपशमश्रेणी से च्युत होकर चारों गतियों का स्पर्श कर सकता है। अतः सम्भव- सत्ता की विवक्षा से यहाँ नरक और वायु की नाकालाई बाली है । दर्शन मोहतक को क्षय नहीं करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि वगैरह को १४८ प्रकृतियों की सत्ता सम्भव है ।
इस प्रकार सत्ता की परिभाषा और सामान्यतः पहले से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक सत्तायोग्य प्रकृतियों का कथन करने के बाद आगे की गाथाओं में चतुर्थ आदि गुणस्थानों में प्रकारान्तर से प्रकृतियों की सत्ता का वर्णन करते हैं ।
अपुव्वा उनके अण- तिरि निरयाउ विणू बियालसयं । सम्माइचउसु सत्तग-वयम्मि इगवत्त-सय महवा ।। २६ ।। गाथार्थ - अपूर्वकरणादि चार गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धीचतुष्क और नरक व तिर्यचायु - इन छह प्रकृतियों के सिवाय १४२ प्रकृतियों की तथा सप्तक का क्षय हुआ हो तो अविरत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में १४१ प्रकृतियों की सत्ता होती है ।