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विसीय कर्मग्रन्थ से कुल १४८ प्रकृतियाँ सत्तायोग्य मानी जाती हैं। इन कर्मप्रकृतियों के स्वरूप की व्याख्या पहले कर्मग्रन्थ से जाननी चाहिए।
सामान्य से सत्तायोग्य १४८ प्रकृतियाँ हैं और पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर ग्यारहव उपशान्तकषाय गुणस्थान तक में से दूसरे सासादन और तीसरे मित्र गुणस्थान को छोड़कर शेष नो गुणस्थानों में १४८ प्रकृतियों की सत्ता कही जाती है। यह कथन योग्यता की अपेक्षा समझना चाहिए। क्योंकि किसी भी जीव के एक समय में भुज्यमान और बद्धमान इन दो आयुओं से अधिक आयु की सत्ता नहीं हो सकती। परन्तु योग्यता सब कर्मों की हो सकती है, जिससे बन्धयोग्य सामग्री मिलने पर जो कम अभी वर्तमान नहीं है, उसका भी बन्ध और सत्ता हो सकती है। अर्थात् वर्तमान में कम की स्वरूपसत्ता न होने पर भी उस कर्म को भविष्य में बंधने की योग्यता की सम्भाबना–सम्भव-सत्ता की अपेक्षा से १४८ प्रकृतियां सतायोग्य मानी जाती हैं।
शंका-आठ कर्मों की १५८ उत्तरप्रकृतियों में नामकर्म की १०३ प्रकृतियाँ पहले बतलाई हैं और यहाँ सत्ता की १४८ प्रकृतियों में नामकर्म की १३ प्रकृतियों को ग्रहण किया है।
समाधान --यहाँ नामकर्म के ६३ भेद लेने का कारण यह है कि शरीरनामकर्म के समान बन्धननामकर्म के भी पांच भेद ग्रहण किये
तिक्त. कटु, कषाय, अम्ल, मधुर । स्पर्श-कर्कश, मृदु, लघु, गुरु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष । पूर्वोक्त बन्धन, संघातन' और वर्णचतुष्क- ये स मी नामकर्म की प्रकृतियां हैं। अतः इनके पूरे नामों को कहने के लिए प्रत्येक के साथ 'नामकर्म' यह शब्द ओड़ लेना चाहिए।