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कर्मस्तव
की सात प्रकृतियों में स अनन्तानुबन्धीचतुष्क का क्षय हो और शेष तीन प्रकृतियों का क्षय नहीं हुआ हो, अर्थात् मिथ्यात्यमोहनीय कर्म सत्ता में होने से उसका उदय हो, तब पुनः अनन्तानुबन्धीकषायचतुष्क के बन्ध की सम्भावना बनी रहे, ऐसे क्षय को विसंयोजना कहते है। जिसका क्षय होने पर पुनः उस प्रकृति के बन्ध की सम्भावना ही न रहे उसे क्षय कहते हैं ।
सत्तायोग्य १४८ कर्मप्रकृतियों की सख्या इस प्रकार है
(१) ज्ञानावरण ५, (२) दर्शनावरण ६, (३) वेदनीय २, {४) मोहनीय २८, (५) आयु ४, (६) नाम ६३, (७) गोत्र २, (८) अन्तराय ५।
इन सब मेंदों ५+३+२ | २८++१३+३+५ को मिलाने में कुल १४८ भेद हो जाते हैं।
यद्यपि १२२ प्रकृतियों उदययोग्य बतलाई हैं। लेकिन सत्ता में १४८ प्रकृतियों को कहने का कारण यह है कि उदय के प्रकरण में पाँच बन्धनों और पांच संघातनों की पृथक-पृथक् विवक्षा नहीं करके उन दोनों की पांच-पांच प्रकृतियों का समावेश पांच शरीरनामकर्म में किया गया था। इसी प्रकार उदय के समय वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्म को एक-एक प्रकृति विवक्षित की गयी थी। परन्तु सत्ता के प्रकरण में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्म के क्रमश पाँच, दो, पाँच और आठ भेद ग्रहण किये हैं।
इस तरह उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में बन्धननामकर्म और संघातननामकर्म के पांच-पांच भेदों तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के सामान्य चार भेदों के स्थान पर इनके पूर्वोक्त बीस भेदों को मिलाने १. वर्ण-कृष्ण, नील, लोहिन, हारिद्र, शुक्म 1 गंध --सुरभि, दुरभि । रस