________________
१००
संस्तव
--
'बन्धाई - लद्ध-अत्तलाभाणं' बन्धादिक द्वारा प्राप्त किया है आत्मलाभ - आत्मस्वरूप – जिनने जिन कर्मों ने वे बन्धादिक के द्वारा स्वस्वरूप को प्राप्त हुए 'बन्धादि लब्धात्म - लाभानां - 'कम्माण - कर्मणा' कर्मों की, 'ठिई-स्थितिः' स्थिति कर्म परमाणुओं का अवस्थान, सद्भाव, विद्यमानता सत्ता कहलाती है। यहाँ 'बन्ध आदि' शब्द में आदि शब्द से संक्रमण आदि का ग्रहण कर लेवं । अर्थात् बन्ध के समय जो कर्मपुद्गल जिस कर्मस्वरूप में परिणत होते हैं, उन कर्मपुद्गलों का उसी कर्मस्वरूप में आत्मा के साथ लगे रहना तथा इसी प्रकार उन्हीं कर्मपुद्गलों का पूर्व स्वरूप को छोड़कर दूसरे कर्मस्वरूप में बदलकर आत्मा में संलग्न रहना सत्ता कहलाती है। इनमें प्रथम प्रकार की सत्ता को 'बन्धसत्ता' और दूसरे प्रकार की सत्ता को 'संक्रमण सत्ता' के नाम से समझना चाहिए।
-
-
आत्मा के साथ जब मिथ्यात्वादि कारणों से जो पुद्गलस्कन्ध संबद्ध हो जाते हैं, उस समय से उनको 'कर्म' ऐसा कहने लगते हैं और तब से उस कर्म की सत्ता मानी जाती है । जैसे कि नरकगति का बन्ध हुआ और उदय में आकर जब तक उसकी निर्जरा न हो जाए, तब तक नरकगतिनामकर्म की सत्ता मानी जाती है। क्योंकि बन्ध द्वारा उन कर्मपुद्गलों ने नरकगतिनामकर्म के रूप में अपना आत्मस्वरूप प्राप्त किया है ।
कदाचित् नरकगतिनाम कर्मतिर्यंचगतिनामकर्म में संक्रमित हो जाए तो नरकगति ने जो बन्ध द्वारा स्वरूप प्राप्त किया था, उसमें तियंचगतिनामकर्म का संक्रमण होने से तियंचगति ने संक्रमण द्वारा अपना स्वरूप प्राप्त किया और उसकी सत्ता कायम रही । परन्तु नरकगतिनामकर्म की सत्ता जो बन्ध से उत्पन्न हुई थी, उसका संक्रमण हो जाने से उसकी सत्ता व्युच्छिन्न हो गयी। इसी प्रकार मिथ्यात्व की सत्ता बन्ध मे होती है और सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोह