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द्वितीय कन्य
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प्रकृतियों को कम करने पर ५२ प्रकृतियां उदीरणायोग्य रहती हैं। इसीलिए बारहवे गुणस्थान में क्रमशः उदययोग्य ५७ और ५५ तथा उदीरणायोग्य ५४ और ५२ प्रकृतियों को बतलाया है ।
कर्मप्रकृतियों की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त ही समझना चाहिए चौदहवें - सयोगिकेतली गुणस्थान में किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं होती है।' इस गुणस्थान में उदीरणा न होने का कारण यह है कि उदीरणा के होने में योग की अपेक्षा है, परन्तु चौदहवें गुणस्थान में योग का सर्वथा निरोध हो जाता है अतः इस गुणस्थान में कर्मों की उदीरणा भी नहीं होती है ।
इस प्रकार चौदह गुणस्थानों में कर्मों की उदीरणा का कथन करके अब आगे की गाथाओं में कर्मों की सत्ता का लक्षण तथा किस गुणस्थान में कितनी कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है, आदि बतलाते हैं । सत्ता क्रम्माण ठिई बंधाई - लद्ध-अस-लाभाणं । संते अडवालसयं जा उवसमु विजिणु ब्रियतइए ॥२५॥ गायार्थ---बन्धादिक के द्वारा कर्मयोग्य जिन पुद्गलों ने अपने स्वरूप को प्राप्त किया है, उन कर्मों के रहने को सत्ता कहते हैं। पहले से लेकर तक १४८ प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है, किन्तु दूसरे व तीसरे गणस्थान में जिननामकर्म के सिवाय शेष १४७ प्रकृतियों की सत्ता होती है ।
आत्मा के साथ लगे
ग्यारहवें गुणस्थान
विशेषार्थ - गाथा में सत्ता का लक्षण और पहले से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक सत्ता प्रकृतियों की संख्या तथा दूसरे, तीसरे गुणस्थान में तीर्थकुरनामकर्म की सत्ता न होने का संकेत किया है।
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तुलना
करो
पत्पित्ति अजोगिजिणे उदीरगा उदयपयष्टीणं ।
- गोम्मटसार, कर्मकाण्डः २८०