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द्वितीय कर्मग्रन्थ
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नीय की सत्ता मिध्यात्व की स्थिति और रस के अपवर्तन से नवीन हो होती है और परस्पर मित होने से एक दूसरे की
होती है ।
सत्ता के दो भेद हैं- सद्भाव सत्ता और सम्भव सत्ता । अमुक समय में कितनी ही प्रकृतियों को सत्ता न होने पर भी भविष्य में उनके सत्ता में होने की सम्भावना मानकर जो सत्ता मानी जाती है. उसे सम्भवसत्ता कहते हैं और जिन प्रकृतियों की उस समय सत्ता होती है, उसे सद्भाव (स्वरूप) सत्ता कहते हैं ।
जैसे कि नरकायु और तिर्यचायु की सत्ता वाला उपशम श्रेणी को नहीं मांड़ता है। फिर भी ग्यारहवे गुणस्थान में १४८ प्रकृतियों को सत्ता मानी जाती है। उसका कारण यह है कि पहले यदि देवायु अथवा मनुष्यायु बाँधी हो तो उस उस की सद्भावसत्ता मानी जायगी परन्तु उक्त नरक और तिर्यंच - इन दो आयुओं की सदभावसत्ता नहीं मानी जायगी । परन्तु ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर बाद में उन दो आयुओं को बाँधने वाला हो तो उस अपेक्षा मे सत्ता मानने पर उसे सम्भव - सत्ता कहा जाता है ।
सम्भव-सत्ता और सद्भाव सत्ता में भी पूर्ववद्धायु और अवद्धायु ऐस दो प्रकार होते हैं और उनमें भी पृथक्-पृथक् अनेक जीवों की अपेक्षा से और एक जीब को अपेक्षा तथा उपशमश्रेणी, क्षपकश्रेणी के आधार से भी विचार किया जाता है और इन श्रेणियों में भी अनन्तानुके विसंयोजक एवं अविसंयोजक के आश्रय में और क्षायिक, क्षायोपश मिक और औपशमिक सम्यक्त्व के आश्रय मे भी विचार किया जाता है ।
विसंयोजना करने वाले को विसंयोजक कहते हैं।' दर्शन सप्तक १. अनन्तानुबन्धी चतुष्क का क्षय हो, किन्तु मोहविक सत्ता में हो, उसे बिसंयोजना कहते हैं ।