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कर्मस्तव
हैं । वैसे बन्धननामकर्म के १५ भेद होते हैं और जब पांच मंदों की बजाय उन १५ भेदों को ग्रहण किया जाय तो नामकर्म के १०३ भेद हो जायेंगे। तब १५८ कर्मप्रकृतियाँ सत्तायोग्य मानी जायेंगी ।
शंका- मिध्यात्व गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता नहीं मानी जानी चाहिए। क्योंकि सुभ्यति ही तीन लन्ध्र कर सकता है | इसलिए जब मिथ्यात्वी तीर्थकर नामकर्म का बन्ध हो नहीं कर सकता है तो उसके तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता कैसे मानी जा सकती है ?
समाधान - जिसने पहले मिध्यात्व गुणस्थान में नरकायु का बन्ध कर लिया है और बाद में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को पाकर तीर्थङ्कर नामकर्म को भी बाँध लिया है, वह जीव नरक में जाने के समय सम्यक्त्व का त्यागकर मिध्यात्व को अवश्य प्राप्त करता है, ऐस जीव की अपेक्षा से ही पहले गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म की सत्ता मानी जाती है । अर्थात् मनुष्य ने पूर्व में मिथ्यात्व गुणस्थान में नरकायु का बन्ध किया हो और बाद में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर तीर्थङ्करनामकर्म का बन्ध करे तो वह जीव मरते समय सम्यक्त्व का वमन कर नरक में जाय तथा वहाँ पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करे तो उसके पहले अन्तर्मुहूर्त तक मिध्यात्व रहता है। अतः वहाँ तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता मानी है। इसीलिए मिथ्यात्व गुणस्थान में १४८ प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है ।
दूसरे और तीसरे गुणस्थान में वर्तमान कोई जीव तीर्थङ्कर नामकर्म को नहीं बाँध सकता है। क्योंकि उन दो गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व न होने कारण तीर्थङ्करनामकर्म नहीं बांधा जा सकता और इसी प्रकार तीर्थङ्कर नामकर्म को बांधकर भी कोई जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर दूसरे या तीसरे गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता है।
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