Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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द्वितीय कर्मग्रन्थ चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान में जैसे कर्मप्रकृतियों का उदय नहीं रहता है, वैसे ही कर्मों की उदीरणा का भी अभाव होना स्पष्ट किया है।
यद्यपि गुणस्थानों में प्रकृतियों की उदीरणः उद ने समान है। लेकिन यह नियम पहले-मिथ्यात्व गणस्थान से लेकर छठेप्रमत्तसंयत्त गुणस्थान तक समझना चाहिए, और आगे सातव-अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर तेरहवें-सयोगिकेवली गणस्थान तक-इन सात गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के उदय की अपेक्षा उदीरणा में कुछ विशेषता होती है। ___ इस विशेषता का कारण यह है कि छठे गणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियाँ ८१ बतलाई गई हैं और उसके अन्तिम समय में आहारकद्विक-आहारकशरीर और आहारकअंगोपांग तथा स्त्याद्धित्रिकनिद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानद्धि-इन पाँच प्रकृतियों का विच्छेद होता है। लेकिन उक्त ५ प्रकृतियों के मिवाय वेदनीयद्विकसाता, असाता वेदनीय और मनुष्याय-इन तीन प्रकृतियों का उदीरणा-विच्छेद भी होता है । छठे गुणस्थान से आगे ऐसे अध्यवसाय नहीं होते हैं, जिससे वेदनीयद्विक और मनुप्यायु- इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा हो सके।' इसीलिए सातवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान नक उदययोग्य प्रकृतियों की अपेक्षा उदीरणायोग्य तीन प्रकृतियाँ कम मानी जाती हैं।
उक्त कथन का यह आशय है कि पहले से छठे गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में उदय और उदीरणायोग्य प्रकृतियां समान हैं, किन्तु
१. संक्लिष्ट परिणामों से ही इन तीनों को उबीरणा होती है, इस कारण अप्र. मत्तादि गुणस्थानों में इन तीनों की उदीरणा होना असम्भब है ।
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