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कमस्तव
इन १२ प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है और इनका विच्छेद होते ही जीव कर्ममुक्त होकर पूर्ण सिद्धस्वरूप को प्राप्त कर अनन्त शाश्वत सुख के स्थान मोक्ष को चला जाता है और 'स्वानुभुत्या चकासते' अपने ज्ञानात्मक स्वभाव से सदैव प्रकाशमान रहता है।
इस प्रकार चौदह गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के उदय, उदय-विच्छेद का कथन करने के बाद अब आगे की गाथाओं में गुणस्थानों में कर्मों की उदीरणा का वर्णन करते हैं।
उदउ-खुदीरणा परमपमसाईसगगणेसु ॥२३॥ एसा पर्याड-तिगूणा बेयर्यामधाहारजुगत तौलतिग। मणुयाउ पमत्तंता अजोगि अणुदीरगो भगवं ॥२४॥
गाथार्थ-उदय के समान उदीरणा होती है। तथापि अप्रमतादि सात गुणस्थानों में उदय की अपेक्षा उदीरणा में कुछ विशेषता है। उदीरणा तीन प्रकृतियों की कम होती है । वेदनीयद्रिक, आहारकद्विक, स्त्यानद्वित्रिक और मनुष्यायु इन आठ का प्रमत्त गुणस्थान में अन्त हो जाता है और अयोगिकेवल भगवान किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं करते हैं।
विशेषार्थ-गाथा में उदय और उदीरणा प्रकृतियों की संख्या में किस गुणस्थान तक समानता और किस गुणस्थान से आगे भिन्नता है, यह बतलाया है और उस भिन्नता को कारण सहित स्पष्ट करते हुए १. मोक्ष की असाधारण कारणमत पुण्योदयात्मक प्रकृतियाँ प्रायः चौदहा गुण
स्थान तक उदय में रहती हैं इसलिए वहाँ तक संसारी अवस्था मानी जाती है। अनन्तर सिद्धावस्था होती है अर्थात् एक भी कर्म उदय या सत्ता में नहीं रहता है। सत्ता में भी चौदहवें गुणस्थान में प्रायः यही १२ प्रकृतियाँ • मानी जाती है।