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द्वितीय कर्मग्रन्थ
शरीर, वज्रऋषभनाराचसंहनन, दुःस्वर और सुस्वरनाम। ये २३ + ६ कुल मिलाकर २६ प्रकृतियों हो जाती है।
इस प्रकार तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में व्युच्छिन्न होने वाली ३० प्रकृतियों के नाम यह हैं- ओदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, अस्थिर, अशुभ, शुभ विहायोगति, अशुभ विहायोगति, स्थिर, शुभ, समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान, कुब्जसंस्थान, हुण्डसंस्थान, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, निर्माण, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वज्रऋषभनाराचसंहनन, दुःस्वर, सुस्वर तथा माना और अमाता वेदनीय में से कोई एक ।'
तेरहवे गुणस्थान में उदययोग्य ४२ प्रकृतियों में से इन ३० प्रकृतियों को कम करने पर शेष रही १२ प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान में रहता है । उनके नाम ये हैं--सुभग, आदेय, यशः कीर्तिनाम, वेदनीयकर्म की दो प्रकृतियों में से कोई एक त्रस, बादर, पर्याप्त पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यायु, मनुष्यगति, तीर्थङ्करनाम और उच्चगोत्र ।
२. तुलना करो
तवियेकज्यमिर्मिणं धिरसुहसरग दिउरालतेजदुग्गं । पत्तेय
संठाणं
क्षण गुरुच उक्क
जोगहि ॥
-- गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, २७१ वेदनीय कर्म की दोनों प्रकृतियों
२. चौदहवें गुणस्थान में किसी भी जीव को का एक साथ उदय नहीं होता है। अतः उन दोनों में से जिस प्रकृति का चौदहवें गुणस्थान में रहता है उस प्रकृति के सिवाय दूसरी प्रकृति
उ
का उदयविच्छेद तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में पाया जाता है। ३. तुलना करो
तदिक्कं मणुवगदी पंचिदियसुभगतसतिगादे
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जसतिस्थं मणुवाउ उच्चं च अयोगिव रिमहि ॥
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड, २७२