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द्वितीय कर्मग्रन्थ चौदहवें गुणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियों की संख्या तथा उसके भी चरम समय में अन्त होने वाली प्रकृतियों के नाम बललाते हैं ।
तित्थुदया उरलाऽपिरखगइदुग परिसितिग छ संठाणा। अगुरुलहुवन्नवल निमिणतेयकम्माइसंघयण ॥२१॥ दूसर सूसर सामासाएगयरं च तीस तुच्छेओ । वारस अजोगि सुभगाइज्जजसन्नयरवेयषियं ॥२२॥
तसतिग पणिवि मणुयाउगह जिणुच्छ ति घरमसमयंता । गाथार्थ-तेरहवें मथान में ही करनापकर्म का उदरा होता है । औदारिकहिक, अस्थिरद्विक, खगति द्विक, प्रत्येकत्रिक, संस्थानषट्क, अगुरुलघुचतष्क, वर्णचतुष्क, निर्माणनाम, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, पहला संहनन, दुःस्वरनाम, सुस्वरनाम, साता-असाता वेदनीय में से कोई एक, कुल ३० प्रकृतियों का उदयविच्छेद तेरहवें गुणस्थान के अन्त में हो जाने रो सुभग, आदेय, यशःकीति, वेदनीयकर्म की दो प्रकृतियों में पानी से कोई एक, सत्रिक, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यायु, मनुष्यगति, जिननामकर्म और उच्चगोत्र-इन १२ प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक होना है । इसके बाद इनका भी अन्त हो जाता है।
विशेषार्थ--- इन दो गाथाओं में तेरहव और चौदहा गुणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियों की संख्या और उन-उनके अन्तिम समय में व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों के नाम बतलाये है।
तेरहवें गुणस्थान में ४२ प्रकृतियों का उदय रहता है । इनमें से ३० प्रकृतियों का इस गुणस्थान के अन्तिम समय में उदयविच्छेद हो जाता है । इन व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों में साता और असाता वेदनीय म से कोई एक वेदनीयकर्म और शेष बची २६ प्रकृतियां पुद्गलविपाकिनी