Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
कर्मस्तव
( पुद्गल द्वारा विपाक का अनुभव कराने वाली ) हैं । इनमें से सुस्वर और दुःस्बर नामकर्म यह दो प्रकृतियाँ भाषा पुद्गलविपाकिनी और शेष औदारिकद्विक आदि २७ प्रकृतियां पशरीर-पुद्गलविपाकिनी हैं।
६४
त्रिपाकिनी कृतियां योग के सद्भाव रहने पर फल का अनुभव कराती हैं । इसलिए जब तक वचनयोग की प्रवृत्ति रहती है और भाषापुद्गलों का ग्रहण, परिणमन होता रहता है, तब तक ही सुस्वर और दुःस्वरनामकर्म का उदय सम्भव है और जब तक काययोग के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और आलम्बन लिया जाता है, तब तक औदारिक आदि २७ प्रकृतियों का उदय हो सकता है । लेकिन तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में योगों का निरोध हो जाता है । इन अतः २६ प्रकृतियों का उदय भी उसी समय रुक जाता है ।
गाथा में इन २६ प्रकृतियों में से किसी-किसी के तो स्वतन्त्र नाम दिये है और शेष प्रकृतियों को संज्ञाओं द्वारा बतलाया है । संज्ञाओं द्वारा निर्दिष्ट प्रकृतियों के नाम ये हैं
औदारिकटिक औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांगनामकर्म । अस्थिरद्विक अस्थिर, अशुभनामकर्म ।
स्वर्गातिद्विक- शुभ विहायोगति, अशुभ विहायोगतिनामकर्म । प्रत्येकत्रिक प्रत्येक, स्थिर, शुभनामकर्म ।
—
—
संस्थानषट्क - समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, वामन, कुब्ज और इंडसंस्थान ।
-
अगुरुलघु चतुष्क -अगुरुलघु, उपघात, पराघात और उच्छ्वास नाम |
वर्ण चतुष्क- वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शनाम ।
उक्त संज्ञाओं के माध्यम से २३ प्रकृतियों के नाम बताये हैं और मोष छह प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-निर्माण, तैजसशरीर, कार्मण