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द्वितीय कर्मग्रन्थ
सगवन्न खोण बुचमि निदुगंतो य चरमि पणपक्ष । नाणंतरायदंसण-चड छेओ सजोगि बापाला ॥२०॥ गाथार्थ - क्षीणकषाय- बीतराग छद्मस्थ गुणस्थान में ५७ प्रकृतियों का उदय रहता है। इन ५७ प्रकृतियों का उदय द्विचरम समय पर्यन्त पाया है और निद्राद्विकका अन्त होने से अन्तिम समय में ५५ प्रकृतियों का उदय रहता है । पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय और चार दर्शनावरण का अन्त बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है एवं सयोगिकेवली गुणस्थान में ४२ प्रकृतियों उदययोग्य हैं ।
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विशेषार्थ - गाथा में बारहवं गुणस्थान के प्रारम्भ में उदययोग्य प्रकृतियों की संख्ण और अन्त होने वाली प्रकृतियों के नाम व तेरहव गुणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियों की संख्या बतलाई है ।
पूर्व में यह बताया जा चुका है कि बारहवाँ गुणस्थान क्षपकश्रेणी का आरोहण करने वाले प्राप्त करते हैं और क्षपकश्रेणी का आरोहण करनेवाले वज्रऋषभनाराचसंहननधारी जीव होते है। अतः ऋषभनाराचसंहनन और नाराचसंहनन इन दो संहननों का ग्यारहवं गुणस्थान के चरम समय में अन्त हो जाता है और उसमें उदययोग्य ५६ प्रक्रतियों में से उक्त दो प्रकृतियों को कम करने पर बारहवें गुणस्थान में ५७ प्रकृतियों का उदय माना जाना चाहिए। परन्तु इन ५७ प्रकृतियों का उदय भी द्विचरम समय अर्थात् अन्तिम समय से पूर्व के समय पर्यन्त पाया जाता है और अन्तिम समय में निद्राद्विक -- निद्रा और प्रचला का उदय व्युच्छिन्न होने से इन दो प्रकृतियों को छोड़कर शेष ५५ प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में माना जाता है । '
१. कितने ही आचार्यों का मत है कि उपमान्तमोह गुणस्थान में ही निद्रा का उदय होता है, किन्तु विशुद्ध होने से क्षीणमोह गुणस्थान में उदय नहीं