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कर्मस्तव
में सन्देह उत्पन्न होने पर तथा निकट में सर्वज्ञ के विद्यमान न होने से औदारिक शरीर से क्षेत्रान्तर में जाना असम्भव समझकर अपनी विशिष्ट लब्धि के प्रयोग द्वारा शुभ, सुन्दर, निरवद्य और अव्याघाती आहारकशरीर का निर्माण करते हैं और ऐसे शरीर से क्षेत्रान्तर में सर्वज्ञ के पास पहुंचकर उनसे सन्देह का निवारण कर फिर अपने स्थान पर वापस आ जाते हैं ।"
लेकिन वह चतुर्दश पूर्वधारी मुनि लब्धि का प्रयोग करने वाले होने से अवश्य ही प्रमादी होते हैं । जो लब्धि का प्रयोग करता है, वह उत्सुक हो ही जाता है और उत्सुकता हुई कि स्थिरता या एकाग्रता का भंग हुआ । एकाग्रता के भंग होने को ही प्रमाद कहते हैं । इसलिए आहारकद्विकका उदय छठे गुणस्थान में ही माना जाता है ।
छठे गुणस्थान में उदययोग्य ८१ प्रकृतियों में से स्त्यानद्धित्रिकनिद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि तथा आहारकद्विक – इन पाँच प्रकृतियों का उदय सातवें गुगस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में नहीं होता है। क्योंकि स्त्यानद्धनिक का उदय प्रमाद रूप है और
१. शुभं विशुमभ्याघाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वरस्यैव ।
स्वार्थ सूत्र, २४६ इसे आहारक समुद्घात भी कहते है । यह आहारकशरीर बनाते समय होता है एवं नाहारकशरीरनामकर्म को विषय करता हुआ, अर्थात् आहारक लब्धि वाला साधु आहारकशरीर बनाने की इच्छा करता हुआ यथा स्थूल पूर्वत्रद्ध आहारकनामकर्म के प्रभूत पुद्गलों की निर्जरा करता है ।
२. तुलना कीजिए—
छठे आहार योगतियं उदया।
- गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, २६७