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कर्मस्तष
वैक्रिय की विवक्षा नहीं की है किन्तु उस गति में जन्म लेने से प्राप्त होने वाले (भवप्रत्ययिक) क्रियद्विक की विवक्षा की गई है। यह भवप्रत्ययिक वैक्रियशरीर और पंत्र अंगोपांग नामकर्म देव और मारपी को ही होता है, किन्तु उन्हें पाँचवाँ गुणस्थान नहीं होता । इसलिए वैयिक का उदय पाँचवे गुणस्थान में नहीं माना जाता है।
इसी प्रकार पांचवें आदि गुणस्थानों को प्राप्त करने वाले जीवों के परिणाम इतने शुद्ध हो जाते हैं कि जिससे दुभंग और अनादेयद्विकअनादेय और अयशःकीर्तिनामकर्म ये तीन प्रकृतियों पहले चार गुणस्थानों में ही उदय को प्राप्त हो सकती हैं, किन्तु पाँचवें आदि आगे के गुणस्थानों में इनका उदय होना सम्भव नहीं है ।
इसलिये पाँचवें गुणस्थान में ८७ प्रकृतियाँ उदययोग्य है ।
छठे गुणस्थान में ८१ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
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पाँचवे गुणस्थान में उदयोग्य ५७ प्रकृतियों में से 'तिरिगइ आउ निउज्जोय' तियंचगति तिर्यचायु, नीचगोत्र और उद्योतनामकर्म' ये चार प्रकृतियां तियंचों में उदययोग्य हैं और तियंचों को पहले से पचव गुणस्थान ही हो सकते हैं, छठे आदि आगे के गुणस्थान नहीं होते हैं । इसलिए इन प्रकृतियों का उदयविच्छेद पाँचवे गुणस्थान के अन्तिम
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१. शास्त्र में 'जइदेवुत्तरविक्रिय' पद में मुनियों और देवों को उत्तरवेक्रियशरीर धारण करने और उस शरीर को धारण करते समय उद्योतनामकमं का उदय होना कहा है अतः जम वैक्रियशरीर वाले की अपेक्षा से छह गुणस्थान में उद्योतनामकर्म का उदय पाया जाता है तब पांचवें गुणस्थान तक ही उद्योतनामकर्म का उदय क्यों माना जाता है ? इसका समाधान यह है कि पांचवें गुणस्थान तक जन्म के निमित्त से होने वाला ही उद्योत - नामकर्म का उदय विवक्षित किया गया है, लब्धि के निमित्त से होने वाला उद्योतनामकर्म का उदय विवक्षित नहीं किया है ।