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कर्मस्तव प्रकृतियों को चौथे गुणस्थान की उदययोग्य १०४ प्रकृतियों में से कम करने पर पांच गुणस्थान में ८७ प्रकृतियों का उदय माना जाता है ।
अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का उदय चौथे गुणस्थान तक रहता है और जब तक उक्त कषायचतुष्क का उदय है, तब तक जीवों को देशविरत आदि गुणस्थानों की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
पांचवा गुणस्थान तिर्यचों को होना सम्भव है और पांचवें से लेकर आगे के गुणस्थान मनुष्यों को ही हो सकते हैं, देवों और नारकों को नहीं और मनुष्य भी आठ वर्ष की उम्र हो जाने के बाद ही उन गुणस्थानों को प्राप्त करने योग्य होते हैं, उसके पहले नहीं । अत: आनुपूर्वीनामकर्म का उदय वक्रगति से परभव सम्बन्धी शरीर को ग्रहण करने जाते समय आत्मा को होता है, परन्तु किसी भी आनुपूर्वी कर्म के उदय के समय जीवों को पांचवां आदि गुणस्थान होना सम्भव नहीं है । इसीलिए चाथे गुणस्थान के चरम समय में इनका उदयविच्छेद होना माना है। नारक और देव-आनुपुर्वी--इन दो आनुपूर्वियों का उदय भी पाँच गुणस्थान में नहीं होता है। इन दोनों के नाम गाथा में 'विउवट्ठ' वैक्रिष-अष्टक शब्द में ग्रहण किये गये हैं। इन आठ प्रकृतियों के नाम और संख्या निम्न प्रकार हैं
(१) वैक्रियशरीर, (२) वैक्रिय-अंगोपांग, (३) देवायु, (४) देवगति, (५) देवानुपूर्वी (६) नरकायु, ७) नरकगति और (८) नरकानुपूर्वी ।
इन आठ प्रकृतियों में से देवायु और देवगति का उदय देवों और नरकायु तथा नरकगति का उदय नारकों को होता है। वैक्रियशरीर और वैक्रिय-अंगोपांग नामकर्म का जदय देव और नारक-दोनों को होता है । परन्तु यह पहले कहा जा चुका है कि देव, नारकों में पाँचवा आदि गुणस्थान नहीं होता है तथा आनुपूवियों के विषय में भी बताया