Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव
नाम का उदय चतुरिन्द्रिय जीवों को होता है और इन जीवों के पहला या दूसरा ये दो गुणस्थान होते हैं ।
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अतः अनन्तानुबन्धी क्रोध से लेकर चतुरिन्द्रियजातिनाम पर्यन्त कुल नौ प्रकृतियों का उदयविच्छेद दूसरे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है' तथा 'अणुपृथ्वीणुदया' अर्थात् नरकानुपूर्वी का उदयविच्छेद पहले गुणस्थान के चरम समय में हो जाने से शेष रही हुई तिचानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी – ये तीनों आनुपूवियाँ तीसरे गुणस्थान में अनुदयरूप होने मे तीसरे गुणस्थान की उदय प्रकृतियों में नहीं गिनी जाती हैं ।
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आनुपूर्वीनामकर्म का उदय जीवों को उसी समय होता है, जब वे पर-भव में जन्म ग्रहण करने के लिए गति से जाते हैं । किन्तु तीसरे गुणस्थान में वर्तमान जीव मरता नहीं है और जब वर्तमान भव सम्बन्धी शरीर को छोड़कर आगामी भव सम्बन्धी शरीर को ग्रहण करने की सम्भावना हो तीसरे गुणस्थानवतीं जीव के नहीं तो आनुपूर्वी नामकर्म का उदय भी नहीं हो सकता है। इसीलिए तीसरे गुणस्थान में आनुपूर्वियों का अनुदय माना है ।
इस प्रकार अनन्तानुबन्धी क्रोध से लेकर चतुरिन्द्रिय नामकर्म पर्यन्त कुल नौ प्रकृतियों तथा तियंच, मनुष्य और देव आनुपूर्वी इन तीनों आनुपूर्वियों सहित बारह प्रकृतियों को दूसरे गुणस्थान की उदययोग्य १११ प्रकृतियों में से कम करने पर तीसरे गुणस्थान में ६६ प्रकृतियों का उदय होना माना जाना चाहिए था । किन्तु मिश्रमोहनीय कर्म का उदय तीसरे गुणस्थान 'मीसे मीसोदएण' में ही होने से उक्त
१. सासणे अणेइन्दी पावरवियलं च उदय वोच्छिष्णा ।
- गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, २६५