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द्वितीय कर्मग्रन्थ
समय में हो जाता है, अर्थात् छठे आदि आगे के गुणस्थानों में ये उदययोग्य नहीं हैं। ___ इस प्रकार तिर्यंचगति आदि उद्योत पर्यन्त चार प्रकृतियों का उदय पांचवें गुणस्थान तक ही माना जाता है तथा प्रत्याख्यानावरणकपायचतुष्क-प्रत्याख्यानावरम क्रोध, मान, माया और लोभ - का उदय जब तक रहता है, तब तक छठे गुणस्थान से लेकर आगे के किसी भी गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती है अर्थात् जब तक प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय रहता है, तब तक सकल संयम का पालन नहीं हो सकता है और न छठा गुणस्थान प्राप्त होता है । इसलिए इन कषायों का पाँचव गुणस्थान के अन्तिम समय में विच्छेद हो जाने से ये छठे गुगम्थान में उदययोग्य नहीं मानी जाती हैं ।
इस प्रकार पांचवें मुणस्थान की उदययोग्य ८७ प्रकृतियों में में तियंचगति, तिथंचायु, नीचगोत्र, उद्योतनामकर्म और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन आठ प्रकृतियों का उदयविच्छेद पांचवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है ।' अतः इन आठ कर्मप्रकृतियों के बिना ७६ प्रकृतियों का उदय छठे गुणस्थान में होना माना जाना चाहिए । किन्तु आहारक-द्विक-आहारकशरीर और आहारक-अंगोपांग नामकर्म-इन दो प्रकृतियों का उदय छठे गुणस्थान में ही होने से पूर्वोक्त ७६ प्रकृतियों में इन दो को मिलाने में कुल ८१ प्रकृतियों का उदय छठे गुणस्थान में होना माना जाता है ।
छठे गुणस्थान में आहारकद्विक का उदय उस समय पाया जाता है, जिस समय कोई चतुर्दश पूर्वधर मुनि लब्धि के द्वारा आहारकशरीर की रचनाकर उसे धारण करते हैं। चतुर्दश पूर्वधारी किसी सूक्ष्म विषय १. देसे तदियकसाया लिरिधाउन्जोवणीच तिरियगदी।
-गोम्मटसार, कर्मकार, २६७