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द्वितीय कर्मग्रन्थ
६६ प्रकृतियों में मिश्रमोहनीय कर्म को मिलाने से कुल १०० प्रकृतियों का उदय तीसरे गुणस्थान में माना जाता है ।
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तीसरे गुणस्थान में उदययोग्य १०० प्रकृतियों में से इसी गुणस्थान के अन्तिम समय में मिश्रमोहनीय का उदयविच्छेद हो जाता है ।" अतः चौथे गुणस्थानवर्ती जीवों के उक्त १०० प्रकृतियों में मे मिश्रमोहनीय के सिवाय शेष रही ६६ प्रकृतियों तथा 'सम्मागपुब्विखेवा' सम्यक्त्वमोहनीय एवं चारों आनुपूर्वियों-नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव आनुपूदियों का उदय सम्भव है। इसलिए चौथे गुणस्थान में १०४ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं ।
चौथे 'गुणस्थान में उदययोग्य १०४ प्रकृतियां में से अप्रत्याख्यानावरणकषाय चतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, क्रियाष्टक, दुर्भग नामकर्म, अनादेयनामकर्म, अयशः कीर्तिनामकमं इन १७ प्रकृतियों का चौथे गुणस्थान के चरम समय में अन्त हो जाता है । अत: इन १७
१. मिस्से मिस्स च उदययोचिणा । - गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, २६५ २. अविरत सम्यग्दृष्टि जीव व्रतादि संयम का पालन नहीं करता है और ऐसा जीव (निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् तत्त्वार्थसूत्र, अ० ६, सूत्र १६ ) चारों गति सम्बन्धी आयु का बन्ध कर सकता है । अतः परभव सम्बन्धी शरीर को ग्रहण करने के लिए विग्रहगति से जाते समय चारों आनुपूवियों में से यथायोग्य उस नाम वाले अनुपुर्वी नामकर्म का उदय अविरत सम्यग्दृष्टि जीव को होता है ।
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३. तुलना करो
अयदे विदिकसाया वेगुश्विय छक्क णिरयदेवाऊ । मणयतिरियाणुपुन्वी दुब्भगणादेज्ज
अज्जसयं ॥
- गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, २६६