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द्वितीय कर्मग्रन्थ स्पर्शनाम), अगुरुल बुचतुष्क (अगुहल घुनाम, उपघात नाम, पराघातनाम और उच्छ्वासनाम)।'
नामकर्म की ये ३० प्रकृतियाँ आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक ही बाँधी जाती हैं, आगे नहीं । अतः पूर्वोक्त ५६ प्रकृतियों में से इन ३० प्रकृतियों को घटा देने से शेष २६ प्रकृतियों का ही बन्ध आठवें गुणस्थान के सातवें भाग में होता है।
आठवें गुणस्थान के अन्तिम सातवें भाग में बन्धयोग्य शेष रही हुई २६ प्रकृतियों में से अन्तिम समय में हास्य, रति, जुगुप्सा और भय, -नोकषायमोहनीयकर्म की ईन चार प्रकृतियों का बन्धविच्छेद हो जाने से नौवें आदि आगे के गुणस्थानों में इनका बन्ध नहीं होता है।
अब नौवें और दसव गुणस्थान की बन्धयोग्य प्रकृतियों की संख्या, नाम आदि बतलाते हैं।
नौवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण है और उस स्थिति के पाँच भाग होते हैं, अतएव आठवें गुणस्थान में अन्तिम समयसातवें भाग के अन्त में हास्य, रति, जुगुप्सा व भय इन चार प्रकृतियों का विच्छेद हो जाने से नौवें गुणस्थान के प्रथम भाग में २२ प्रकृतियों १. तुलना करो.-.
मरणूणम्हि णियट्टी पढमे गिट्टा तहेव पयग्ना य । छठे भागे तित्थं णिमिणं सग्गमणपंचिदी ।। तेजदुहारष्ट्रसमचउसुरवण्णागुरुचउक्कतसणवयं ।
- गोम्मटसार, कर्मकाण्डु, १९-१०० २. तुलना करोच मे हस्सं च रदी भयं जुगुच्छा म बन्धवोच्छिणा ।
-गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, १००