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कर्मस्तव
और किसी एक कारण के कम हो जाने से उन कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। शेष सब कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है ।
जैसे कि मिथ्यात्व गुणस्थान के अन्त में व्युच्छिन्न होने वाली नरकत्रिक आदि पूर्वोक्त १६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व अविरति, कषाय और योग इन चार कारणों से होता है। ये चारों कारण पहले गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त रहते हैं, अतः उक्त १६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी उस समय तक हो सकता है। लेकिन पहले गुणस्थान से आगे मिध्यात्व नहीं रहा है, इसलिए कक आदि पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियों का बन्ध भी पहले गुणस्थान से आगे नहीं होता है । इसी प्रकार दूसरी- दूसरी कर्मप्रकृतियों का बन्ध व विच्छेद, बन्धहेतुओं के सद्भाव और विच्छेद पर निर्भर है ।
इन बन्धहेतुओं की अपेक्षा गुणस्थानों का वर्गीकरण, बन्धयोग्य प्रकृतियों की अल्पाधिक संख्या, नाम और कारण आदि के लिए परिशिष्ट देखिये |
इस प्रकार गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों का कथन करने के पश्चात निर्देशानुसार आगे की गाथा में उदय और उदीरणा का लक्षण, उदययोग्य प्रकृतियों की संख्या और पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में उदय को प्राप्त होने वाली प्रकृतियों की संख्या और उसके कारणों को स्पष्ट करते हैं ।
उदओ विवागवेयणमुदोरण अपत्ति इह बुवीससयं । सतरस मिच्छे मोस सम्म आहार-जिणऽणुवया ||१३||
गाथार्थ - विपाक के समय फल को भोगना उदय और विपाक का समय न होते हुए भी फल का भोग करना उदीरणा कहलाता है । सामान्य से उदय और उदीरणायोग्य कर्मप्रकृतियाँ १२२ हैं । उनमें से मिश्रमोहनीय, सम्यक्त्व