Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कमंस्तव
बिय कसाया ||१५|
वउसयमजए
सुहुम- तिगायब - मिच्छं मिच्छतं सासणे इगारसयं । निरयाणुपुविणुदया अण-यावर इग विगल अंती ||१४|| मीसे सयमणुपुरषोणवया मीसोदएण मोसंतो । सम्मापुवि खेवा मधुतिरिपुपुषि बिच बुकुप अपाज्जग सारखेओ । सगसोड देसि सिरिगहआउ निउज्जोय तिकसाया ॥ १६॥ अट्ठच्छेओ इगसी पमत्ति आहार - जुगल- पक्खेवा । श्रीपतिगाहारग दुग छेओ छस्सयरि अपसत्ते ॥ १७ ॥ गाथार्थ - सूक्ष्मत्रिक, आतपनाम और मिथ्यात्वमोहनीय का मिथ्यात्व गुणस्थान के अन्त में क्षय होने और नरकानुपूर्वी का अनुदय होने से सासादनगुणस्थान में एक सौ ग्यारह प्रकृतियों का तथा अनन्तानुबंधीचतुष्क, स्थावरनाम, एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रियत्रिक का अन्त होने से तथा आनुपूर्वीनामकर्म का अनुदय एवं मिश्रमोहनीय का उदय होने मे मिश्रगुणस्थान में एक सौ प्रकृतियों का उदय होता है ।
तीसरे गुणस्थान के अन्त में मिश्रमोहनीय का अन्त होने तथा सम्यक्त्वमोहनीय एवं चारों आनुपूर्वियों को मिलाने से अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में एक सौ चार प्रकृतियों का और दूसरी अप्रत्याख्यानांवरणकषाय चतुष्क, मनुष्य- आनुपूर्वी, तिर्यंच आनुपूर्वी, वैक्रियाष्टक, दुभंग और अनादेयद्विक इन सत्रह प्रकृतियों को चौथे गुणस्थान की उदययोग्य एक सो चार प्रकृतियों में से कम करने पर देशविरत गुणस्थान में सतासा प्रकृतियों का उदय होता है ।
पाँच गुणस्थान की उक्त सतासी प्रकृतियों में से तिर्यच